आज के कर्मचारियों के लिये समीचीन...।
आत्मसम्मान के आगे यह वैभव तुच्छ है!
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उन दिनों आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रेलवे में अधिकारी थे ।
अत्यन्त चिन्ता में रहने लगे थे ।
एक दिन पत्नी ने पूछ ही लिया कि आप मुझसे छिपा रहे हैं ? क्या बात है?
आचार्य बोले यह जो नया अंग्रेज अफसर आया है , रातभर क्लबों में बिताता है , मैं इसकी ड्यूटी बजाता हूं! इसने मेरी विनम्रता को मजबूरी समझ लिया है। बुधबार को बोला कि सभी कर्मचारियों से कहो कि वे आठ बजे आजाया करें ! मैने कहा कि मैं तो आजाऊंगा , किन्तु बाकी कर्मचारियों से तो आप ही कहियेगा ! यह बात बढ गयी , वह बोला कि मैं आपकी जगह दूसरा आदमी रख लूंगा । वह मेरे माध्यम से कर्मचारियों पर जुल्म करना चाहता है !
पत्नी ने कहा कि आपने तुरन्त इस्तीफा लिख कर उसके मुंह पर क्यों नहीं दे मारा ?
आचार्य बोले मैने यही किया देवी! अच्छा तो यह चिन्ता है!
पत्नी ने कहा । नहीं देवी! , समस्या इसके बाद की है ! क्या? देवी!, अब वह कहता है कि मैं इस्तीफा वापस ले लूं ! मैं क्या करूं?
पत्नी ने कहा कि इस्तीफा और वापस ? कोई थूक कर चाटता है क्या ?
आचार्य बोले किन्तु यह शान-शौकत की जिन्दगी , सरकारी-नौकरी , यह रुतबा !
पत्नी ने कहा कि स्वाभिमान की सूखी रोटी तो मिलेगी,, तुम आठ आना रोज भी कमा लाओगे तो मै उसी में घर चला लूंगी !
आत्मसम्मान के आगे यह वैभव तुच्छ है!
आज जब शब्द और आचरण का रिश्ता बदल गया है , आचार्यमहावीरप्रसादद्विवेदी के जीवन की यह घटना प्रासंगिक है कि द्विवेदी जैसे युग किताबों को लिखने से नहीं , तपोमय- आचरण से बनते हैं।
सवाल यह नहीं है कि उनके शब्द अंग्रेजी के थे, या उर्दू के अथवा संस्कृत के ,सवाल यह है कि उनके शब्द का उनके आचरण से क्या रिश्ता था |
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Sunday, 17 September 2017
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
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