संतों की कहानियाँ

दयालु राजकुमार सिद्धार्थ 

बहुत प्राचीन समय की बात है। भारत में कपिलवस्तु नाम की एक बड़ी सुन्दर नगरी थी। उस समय राजा शुद्धोदन वहाँ राज्य करते थे। ये बड़े धार्मिक और न्याय- प्रिय राजा थे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया।

जब सिद्धार्थ बड़े हुए, तो एक बार वे मंत्री- पुत्र देवदत्त के साथ धनुष- बाण लिए घूम रहे थे। संध्या समय था। सूर्य अस्त हो रहा था। आकाश में लाली छा गई थी। बड़ा मनोहर दृश्य था। पक्षी आकाश में उड़े जा रहे थे। सहसा सिद्धार्थ की दृष्टि दो राज- हंसों पर पड़ी और देवदत्त से बोले- देखो भाई, ये कैसे सुन्दर पक्षी है। देखते ही देखते देवदत्त ने कान तक खींचकर बाण चलाया और उनमें से एक पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा। सिद्धार्थ ने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद में ले लिया और पुचकारने लगा। देवदत्त ने अपना शिकार हाथ से जाते देख सिद्धार्थ से कहा कि इस पर मेरा अधिकार है, इसे मैंने मारा है। सिद्धार्थ ने राजहंस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि बेशक तुमने इसे मारा है, परन्तु मैंने इसे बचाया है। इसलिए यह पक्षी मेरा है।

राजकुमार सिद्धार्थ ने पक्षी की सेवा की उसकी मरहम- पट्टी की और उसे चारा दिया। समय पाकर पक्षी स्वस्थ होने लगा। फिर एक बार देवदत्त ने सिद्धार्थ से कहा कि मेरा पक्षी मुझे दे दो, परन्तु सिद्धार्थ नहीं माना। लाचार हो देवदत्त ने महाराज के पास जाकर न्याय की पुकार की। महाराज ने दोनों को दरबार में बुलाया।
राजकुमार सिद्धार्थ राजहंस को गोद में लिए हुए राज- दरबार में पहुँचे। पक्षी डर के मारे कुमार के शरीर से चिपट रहा था। महाराज ने देवदत्त से पूछा कि अब तुम अपनी बात कहो। इस पर देवदत्त ने कहा- महाराज! इस पक्षी को मैंने अपने बाण से मारा है, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। आप चाहें तो, कुमार सिद्धार्थ से ही पूछ लें।

महाराज की आज्ञा पाकर राजकुमार सिद्धार्थ ने खड़े होकर माथा झुकाकर नम्रता से कहा- हे राजन्, यह तो ठीक है कि यह पक्षी देवदत्त के बाण से घायल हुआ है, पर मैंने इसे बचाया है। मारने वाले की अपेक्षा बचाने वाले का अधिक अधिकार होता है। इसलिए यह पक्षी मेरा है।
अब राजा बड़ी सोच में पड़े। देवदत्त का अधिकार जताना भी ठीक था और सिद्धार्थ का भी। राजा कोई निर्णय न कर सके। अंत में एक वृद्ध मन्त्री ने उठकर कहा कि हे महाराज! इस पक्षी को सभा के बीच में छोड़ दिया जाए। दोनों कुमार बारी- बारी से इसे अपने पास बुलाएँ। पक्षी जिसके पास चला जाए, उसीको दे दिया जाए। यह विचार सबको पसंद आया।

अब पक्षी को सभा के ठीक बीच में छोड़ दिया गया। एक कोने पर सिद्धार्थ खड़े हुए और दूसरे कोने पर देवदत्त। पहले देवदत्त की बारी थी, उसने पक्षी को बड़े प्रेम से बुलाया, परन्तु वह डर के मारे उससे और दूर हट गया। ज्यों- ज्यों वह बुलाए, पक्षी डर से सिकुड़ता जाए। अंत में देवदत्त हताश हो गया, अब कुमार सिद्धार्थ की बारी थी। ज्योंही उन्होंने प्यार भरी आँखों से पक्षी की ओर देखकर हाथ फैलाया और उसे बुलाया, त्यों ही वह धीरे- धीरे चलता हुआ अपने बचाने वाले की गोद में आकर बैठ गया। हंस सिद्धार्थ को दे दिया गया।
कुमार सिद्धार्थ उस पक्षी की दिन- रात सेवा करने लगे। कुछ दिनों बाद राजहंस पूर्ण स्वस्थ होकर उड़ गया।
जानते हो ये कुमार सिद्धार्थ कौन थे? यही बाद में राजपाट छोड़कर गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने अहिंसा का पाठ सारे संसार को पढ़ाया। आज भी चीन, जापान आदि कई देश बौद्ध मत को मानते हैं। हमारी सरकार ने भी कुछ साल पहले बड़े समारोह से गया के पवित्र तीर्थ में उनकी जयन्ती मनाई।

महावीर

आज से ढाई हजार वर्ष पहले इस भारत भूमि पर सिद्धार्थ नाम के एक बड़े धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। ये इक्ष्वाकु कुल के थे। ये और इनकी महारानी का नाम त्रिशला था। इनकी प्रजा बड़ी सुखी थी। राज्य धन- धान्य से भरपूर था।

एक बार महारानी को बड़ा सुन्दर स्वप्न आया, जिसका अर्थ यह था कि उन्हें एक शूरवीर और महान् धार्मिक पुत्र प्राप्त होगा। भगवान् की लीला, उसी दिन से राज्य में दिन दूनी, रात चौगुनी उन्नति होने लगी। राजा और रानी सारा- सारा दिन सत्संग और दीन- दुखियों की सेवा में लगे रहते।
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को सोमवार के दिन प्रातः काल के समय इनके घर पुत्र हुआ। शिशु का रंग कुन्दन की तरह चमक रहा था। सभी अंग बड़े सुन्दर थे। अब तो राजा- रानी फूले न समाते थे। एक बार संजय और विजय नामक साधु शिशु को देखने आए। उसे देखते ही उनकी सब शंकाएं और अज्ञान मिट गया, उनका मन जल की तरह निर्मल हो गया। राजकुमार के दो नाम रखे गए- वीर और वर्धमान।

एक बार राजकुमार अपने मित्रों के साथ पेड़ पर उछल- कूद रहे थे कि एक भयानक काला नाग पेड़ पर जा चढ़ा। राजकुमार के सब साथी डरकर भाग खड़े हुए, परन्तु राजकुमार बिलकुल न डरे और उसके फन पर पैर रखकर नीचे उतरकर उसको खूब जोर- जोर से हिलाने- डुलाने लगे और बहुत देर तक खेलते रहे। इसके बाद कुमार को सोने के घड़े में जल लेकर नहलाया गया और इनका नाम महावीर रख दिया गया।
जब ये पाँच वर्ष के हुए, तो कुल की रीति के अनुसार इन्हें गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजा गया। ये बहुत थोड़े समय में ही सब- कुछ सीख गए। आठ वर्ष की आयुसे ही इनके मन में यह विचार आया कि सच्चा सुख केवल त्याग से ही मिल सकता है। इस संसार के सभी सुखों का अन्त दुःख में होता है। उन्होंने कठोर व्रतों का पालन शुरु कर दिया और गृहस्थ के कामों को भी करते रहे। जब तक ये महापुरुष घर में रहे, इन्होंने सारे कर्तव्य भली- भाँति पालन किए और उनसे कभी भी मुख नहीं मोड़ा। परन्तु वे सदा ही विचारते रहे कि किस प्रकार जन्म- मरण के चक्र से छूटा जा सकता है और परम आनंद मिल सकता है। इन्होंने सदा माता- पिता और गुरु की हर आज्ञा को माना और तन, मन, धन से उनकी सेवा करते रहे। वे विवाह न कर कठोर ब्रह्मचर्य- व्रत का पालन करते रहे।

भगवान् महावीर संस्कृत और दूसरी भाषाओं के महान् विद्वान् थे। एक दिन आप प्रभु के ध्यान में बैठे थे कि पूर्वजन्मों का चित्र आँखों के सामने खिंच गया और विचारने लगे कि अनेक जन्म बीत गए और इस जन्म के भी तीस वर्ष बीत गए हैं, परन्तु अभी मोह मेरे मन से दूर नहीं हुआ। आप फूट- फूटकर रोए। आपने एकाएक घर छोड़ने का निश्चय कर लिया और माता- पिता को समझा- बुझाकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर घर को सदा के लिए त्याग दिया। आपने वन में पहुँचते ही कपड़े और गहने उतारकर फेंक दिए और अपने बालों को उखाड़ दिया। अब आपने कठोर तपस्या शुरु कर दी। एक बार पूरे छः मास तक समाधि में बैठे रहे। न कुछ खाया और न पिया। इसके बाद कुलपुरगए। वहाँ के राजा ने उनका बहुत आदर किया और प्रेम से भोजन कराया।


सच्चे व्यापारी नानक 

आज से पाँच सौ वर्ष पहले, संवत् १५२६ की कार्तिकी पूर्णिमा के शुभ दिन पंजाब में लाहौर नगर के पास तलवंडी नामक स्थान पर एक खत्री परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम नानक रखा गया। इसके पिता का नाम कल्याणचन्द था, परन्तु लोग इन्हें कालू नाम से ही पुकारते थे।

जब नानक सात वर्ष के हुए तो इन्हें पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा गया। पण्डित जी ने इनकी पाटी पर गिनती लिखकर दी। नानक ने कहा- पण्डित जी! यह विद्या तो संसार के झगड़े में डालने वाली है, आप तो मुझे वह विद्या पढ़ाएँ, जिसे जानकर सच्चा सुख मिलता है। मुझे तो प्रभु नाम का उपदेश दें। यह सुनकर पण्डित जी हैरान रह गए, फिर भी नानक जी ने दो वर्ष तक पढ़ाई की। नानक प्रायः दूसरे बच्चों की तरह खेल- कूद में समय नहीं बिताते थे। परन्तु जब भी उन्हें देखो, आसन लगाकर भगवान् के भजन में मस्त होते। वे दूसरे बच्चों को भगवान के भजन का उपदेश देते।

एक बार इनके पिता ने इन्हें बीस रुपये दिए और कहा कि लाहौर जाकर कोई सच्चा व्यापार करो, जिससे कुछ लाभ हो। इनके साथ अपने विश्वासी कर्मचारी बाला को भी भेजा। नानक बाला को साथ लेकर लाहौर की ओर चल पड़े। जब वे जूहड़काणे के निकट जंगल में पहुँचे तो देखा कुछ साधु तपस्या कर रहे हैं। नानक ने पास जाकर उनके चरण छुए। पता लगा कि वे सात दिन से भूखे हैं। नानक ने बाला से कहा- इससे बढ़कर और सच्चा व्यापार क्या होगा! आओ, इन साधुओं को भोजन कराएँ। ऐसा कहकर नानक उनके निकट जा बैठे और बीस रुपये भेंट कर दिए। उनमें बड़े महात्मा ने कहा- बेटा, रुपये हमारे किस काम के? तुम्हे ये रुपये व्यापार के लिए तुम्हारे पिता ने दिये हैं, तुम्हें उनकी आज्ञा के अनुसार ही काम करना चाहिए।
नानक ने कहा- महाराज! पिताजी ने मुझे सच्चा व्यापार करने के लिए भेजा है, इसीलिए मैं यह खरा व्यापार कर रहा हूँ। मैं और सब व्यापार झूठे समझता हूँ।

अब महात्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बोले- तू सच्चा प्रभु- भक्त है, इन रुपयों से खाने का सामान ले आ। नानक ने बाला को साथ लेकर पास के गाँव से आटा, दाल, चावल, घी, शक्कर आदि सब वस्तुएँ लाकर महात्मा जी को भेंट कर दीं। फिर महात्माओं के चरण छूकर वे घर को वापस लौट पड़े। घर पहुँचने पर जब उनके पिता को यह मालूम हुआ, तो उन्होंने नानक को बहुत पीटा। नानक की बहिन नानकी ने बीच में पड़कर बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया।

गाँव के हाकिम राव बुलार नानक के गुणों को जानते थे। उन्होंने कालू को बुलाकर बीस रुपये दे दिए और कहा कि इस बालक को कभी कुछ मत कहना। यह एक महान् पुरुष है। गांव के हाकिम के समझाने से कालू ने नानक को उसके बहनोई के पास सुलतानपुर भिजवा दिया। ये बड़े सज्जन पुरुष थे, ये नानक जी को सदा भगवान् के भजन में आनन्द लूटते देखते। यहीं नानक जी का विवाह हुआ और दो पुत्र भी हुए। यहाँ पर नानक जी ने मोदीखाने का काम किया। कई वर्ष काम करने के बाद इनका मन संसार से उठ गया। वे घर से चले गए। परन्तु तीसरे दिन ही वे बहनोई के घर लौट आए। साधुओं के वेश में इन्होंने लोगों को अपनी मोदीखाने की दुकान लूटने की आज्ञा दे दी और आप गाँव के बाहर जाकर प्रभु- भजन करने लगे। लोगों ने दुकान को जी भरकर लूटा।

उधर समाचार गाँव के नवाब दौलत खाँ को मिला तो वे आग- बबूला हो उठे। उन्होंने नानक के बहनोई को बुलवाया और कहा कि सरकारी मोदीखाना को लुटाने का सारा दोष तुम और नानक दोनों पर है, मैं अभी हिसाब करता हूँ। जब हिसाब हुआ तो उल्टा नानक जी का सात सौ आठ रुपया नवाब की ओर निकला। सब हैरान रह गए। नानक के कहने पर यह रुपया गरीबों में बाँटा गया। अब तो नानक के दर्शनों को बहुत लोग आने लगे। प्रभु- भजन में बाधा देखकर नानक वहाँ से एमनाबाद में आकर लालू नामक बढ़ई के घर ठहरे।
एक दिन वहाँ के रईस भागू ने नानक जी को भोजन के लिए निमंत्रण दिया। इसी बीच लालू बढ़ई भी भोजन ले आया। नानक जी रईस का भोजन अस्वीकार कर लालू का भोजन करने लगे। अब भागूको बड़ा क्रोध आया। वह स्वयं उनकी सेवा में पहुँच इसका कारण पूछने लगा कि स्वादिष्ट और बढ़िया भोजन छोड़कर आपने नीच लालू का रूखा भोजन क्यों पसन्द किया? नानक जी ने कहा कि तुम भी अपना भोजन ले आओ। जब भोजन आ गया तो नानक जी ने एक हाथ में लालू की सूखी रोटी और दूसरे में भागू की बढ़िया रोटी लेकर जोर से दबाई। लोगों की हैरानी का कोई पार न रहा, जब लालू की रोटी से दूध की बूँदें और भागू की रोटी से खून की बूँदें टपकीं।

लोगों के पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सूखी रोटी तो सच्चे खून- पसीने की कमाई की है और यह स्वादिष्ट भोजन गरीबों का खून चूस- चूसकर बनाया गया है। इसलिए सदा मेहनत और धर्म से ही धन कमाना चाहिए, वही फलता और फूलता है। भागू ने उनके चरण पकड़ लिए और शिष्य बन गया।
अब नानक देव जी मक्का- मदीना आदि सब स्थानों की यात्रा करने लगे। इनके हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शिष्य बने। सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर छोड़ा। जीवन- भर वे धर्म और सच्चाई की राह बताते रहे और अमर हो गये।

कबीरदास


"कबीरदास" भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि,समाजसुधारक एवं प्रवर्तकमाने जाते है। इनका जन्म सं.१४५५ में हुआ था -

चौदह सौ पचपन साल गए चंद्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी प्रगत भए। ।

नीरू एवं नीमा नामक जुलाहों ने इनका पालन-पोषण किया था। स्वामी रामानंद ,इनकेगुरु थे। कबीर ने कहा है- काशी में हम प्रगत भये,रामानंद चेताये । " कबीर की स्त्री कानाम लोई था। कमाल और कमाली ,इनकी संताने थी। कबीर ने जुलाहे का व्यसायअपनाया था।इनका निधन १५७५ में मगहर में हुआ था।

बीजक कबीर की प्रमाणिक रचना मानी जाती है। इसमे कबीर की वाणी का,उनकेशिष्यों द्वारा किया गया संकलन है। बीजक के तीन भाग -साखी,सबद और रमैनी है । इसमे साखी महत्वपूर्ण मानीजाती है।

महात्मा कबीर के समय में सारा समाज अस्त-व्यस्त था। उनका युग सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से सक्रांति कालथा,समाज टूटा था। हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मान्धता में जकड़े एक दूसरे के प्रति विद्वेष की भावना से ग्रसित थे।इसके कारण दोनों की सम्प्रदायों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। कबीर इस धर्मान्धता से क्षुब्ध थे। कबीर नेसामाजिक ,धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त कुरीतियो और आडम्बरों को भली-भाँति समझा तथा उसे दूर का एक नैतिक समाजके गठन का आह्वान किया। कबीर ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे,जिसमे न जाती की बाध्यता हो और न हीधर्मान्धता की जकड़न हो। कबीर का समाजसुधारक रूप सामाजिक ,धार्मिक,आर्थिक एवं नैतिक क्षेत्रों में देखा जासकता है। कबीर वर्ण,जाती और धर्म को नही मानते थे। कबीर को योगी ,साधु-संन्यासियो,मुनियों एवं पंडितों काआडम्बर कभी स्वीकार नही हुआ। इसीलिए वेशधारी-मिथ्याडम्बरी लोगों का विरोध कर इनके व्रत-उपवास और पूजा-पाठ पर व्यंग किया है। ब्राह्मण उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से अपने को उच्च मानता था,चाहे उसकी दिनचर्या वैश्यकी या शुद्र की ही क्यों न हो ,इसी वर्ण-व्यवस्था को कबीर ने बदलने का प्रयास किया।

पंडित भूले पढि गुनि वेदा । आप अपनपौ जान न भेदा । ।
अति गुन गरब करें अधिकाई । अधिकै गरदि न होइ भुलाई । ।

हिंदू समाज की ही यह दशा न थी,हिन्दुओं की भाँति इस्लाम के ठेकेदारों ने भी अपने समाज में मिथ्या आचार-विचारोंएवं आडम्बरों को प्रश्रय दे रखा था। मुल्ला की झूठी इबारत और नमाज पढने के उपरांत गो-हत्या करना कबीर से सहान गया-

"दिन भर रोजा रहत है,रात हनत है गाय" कहकर रोजा का मजाक उडाया।
मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा-मुर्गी खायी"

वास्तव में कबीर के प्रेरणा किसी व्यक्ति को सुधारने के लिए नही है,बल्कि दिशाविहीन समाज को दिशा देने के लिए है।वे मदांध लोगों को समझाते है-

"निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय ।

मुई खाल की सांस सों सार भसम है जाय । । "

कबीर ने किसी मतवाद या प्रवर्तन नही किया। मानव जीवन के लिए उन्होंने जो कल्याणकारी मार्ग समझा ,अपने ज्ञान और अनुभवों के आधार पर जिसे उपयुक्त पाया उसका प्रवर्तन किया। कबीर मात्र एक कवि ही नही थे,बल्कि एक युग-पुरूष की श्रेणी में भी आते है। भक्तिकाल में ही नही,सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में कबीर जैसी प्रतिभा और साहस वाला कोई कवि दूसरा पैदा नही हुआ। उन्होंने भक्तिकाल का एकान्तिक आनंद जितना अपनाया है,उससे भी अधिक सामाजिक परिष्कार का दायित्व निर्वाह किया है। कबीर ने एक भावुक रचनाकार की तरह परमात्मा ,आत्मा ,माया कबीर जगत के विषय में चिंतन किया है।उनके इस चिंतन को दार्शनिक रहस्यवाद की कोटि में रखा जा सकता है। कबीर कोरे दार्शनिक नही है। वे मूलतः भक्त है । इसीलिए तर्कपूर्ण चिंतन -मनन के प्रति उनकी रुझान कम ही रहती है। कबीर सारी चिंता को छोड़ कर केवल हरिनाम की चिंता करते है। राम के बिना जो कुछ भी उन्हें दिखाई देता है,वह सब काल का पाश है। कबीर व्यक्तिगत साधना के साधक एवं प्रचारक थे,परन्तु उनका अपना व्यक्तित्व भी तो समाज सुधार की लहर की उपज था। अतःकबीर एक उच्चकोटि के समाज-सुधारक एवं कवि थे


गोस्वामी तुलसीदास

हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र गोस्वामी तुलसीदासजी भक्तिकाल कीसगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि है। तुलसीदास एक साथकवि,भक्त तथा समाजसुधारक इन तीनो रूपों में मान्य है। इनका जन्म सं.१५८९को बांदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नामआत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक कीपुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारणतुलसी को रत्नावली की फटकार " लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननीपड़ी जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया । पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनकेगुरु बाबा नरहरिदास थे,जिन्होंने इन्हे दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन चित्रकुट,काशी तथा अयोध्या में बीता । इनकादेहांत सं.१६८० में काशी के असी घाट पर हुआ -

संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर । ।

तुसलीदास की अब तक तीन दर्ज़न से अधिक पुस्तकें प्राप्त हो चुकी है,किंतु उनमें १२ ही प्रमाणिक मानी गई है। इनकानाम निम्न है - १.दोहावली २.कवितावली ३.गीतावली ४.कृष्ण गीतावली ५.विनय पत्रिका ६.रामचरितमानस इनकासर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। इसकी कथा ७ कांडों में विभक्त है। इसका रचनाकाल सं.१६३१ माना गया है । ७.रामलला नहछू८.वैराग्य संदीपिनी ९.बरवै रामायण १०.पार्वती मंगल ११.जानकी मंगल १२.रामज्ञा प्रश्न

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इनके महत्व के सम्बन्ध में लिखते है - "तुलसी का महत्व बताने के लिए विद्वानों नेअनेक प्रकार की तुलनात्मक उक्तियों का सहारा लिया है। नाभादास ने इन्हे कलिकाल का वाल्मीकि कहा था, स्मिथ नेइन्हे मुग़ल काल का सबसे बड़ा व्यक्ति माना था । ग्रियस्रन ने इन्हे बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक कहा थाऔर यह तो बहुत लोगो ने बहुत बार कहा है कि उनकी रामायण भारत की बाइबिल है। इन सारी उक्तियों का तात्पर्ययही है की तुलसीदास असाधारण शक्तिशाली कवि ,लोकनायक और महात्मा थे।" महात्मा तुलसीदास सचमुच हीहिन्दी साहित्याकाश के सूर्य थे। पराधीनता के समय में एक ओर उन्होंने "पराधीन सपुने सुख नाही", की बात की तो दूसरी रामराज्य का आदर्श स्थापित कर पराधीन भारत की संघर्ष की प्रेरणा दी ।

गोस्वामी तुलसीदास के समस्त साहित्य का प्रमुख विषय राम भक्ति ही है। राम के शील ,शक्ति और सौन्दर्य सेसुसज्जित लोक रक्षक रूप का चित्रण करना तुलसी का प्रमुख उद्देश्य है। तुलसीदास ने अपने समय के प्रचलित प्रायःसभी शास्त्रीय तथा लोक शैलीओं में काव्य रचना की है। भाषा की दृष्टि से तुलसीदास का ब्रज और अवधी पर सामानरूप से अधिकार है। स्वामी ,सेवक ,भाई ,माता,पिता ,पत्नी और राजा के उच्चतम आदर्शो का एकत्र मिलन ,गोस्वामीतुलसीदास के कालजयी साहित्य में ही हो सकता है।

शंकराचार्य

शंकराचार्य हिमालयकी ओर यात्रा कर रहे थे । तब उनके साथ उनके सभी शिष्य थे । सामने अलकनंदा नदीका विस्तीर्ण पात्र था । किसी एक शिष्यने शंकराचार्यजीकी स्तुति करना प्रारंभ किया । उसने कहा, ‘‘आचार्य, आप कितने ज्ञानी हैं ! यह अलकनंदा सामनेसे बह रही है ना ! कितना पवित्र प्रवाह है ये ! इससे भी कितने गुना अधिक ज्ञान आपका है ! महासागरसमान !’’
उस समय शंकराचार्यजीने हाथका दंड पानीमें डुबाया, बाहर निकाला एवं शिष्यको दिखाया । ‘‘देख, कितना पानी आया ? एक बूंद आई उसपर ।'’ शंकराचार्य हंसकर बोले, ‘‘पागल, मुझे कितना ज्ञान है बताऊं ? अलकनंदाके पात्रमें जितना जल है ना, उसका केवल एक बिंदु दंडपर आया । पूरे ज्ञानमेंसे मेरा ज्ञान केवल उतना ही है । जब आदि शंकराचार्य ऐसा कहते हैै, तो आप-हम क्या है ?

रामकृष्ण परमहंस

संपूर्ण जगत् जब शांत सोया हुआ होता है, तब रामकृष्ण परमहंस निर्जन घने वनमें वृक्षके नीचे ध्यानमग्न होकर कालीमाताकी उपासना करते थे । रामकृष्णका भतीजा हरिदाके मनमें प्रश्न उभरता था, ‘प्रति रात्रि रामकृष्णजी कहां जाते हैं ? क्या करते हैं ?' एक रात्रि हरिदा रामकृष्णजीके पीछे-पीछे गए । रामकृष्णजी घने वनमें घुस गए । उनके हाथमें न तो दीया था, न तो मोमबत्ती । रामकृष्णजीने आंवलेके पेडके नीचे पद्मासन लगाया एवं नेत्र मूंद लिए । इससे पूर्व उन्होंने गलेमें पहना हुआ जनेऊ भी केसरी वस्त्रोंसहित उतार दिया । यह देख हरिदाको आश्चर्य हुआ । सूर्योदयतक रामकृष्णजी अविचल बैठे रहे । कुछ समय उपरांत उन्होंने यज्ञोपवित (जनेऊ) धारण किया । सूर्योपासना की । हरिदा यह सब देख रहे थे । रात्रिसे अस्वस्थ करनेवाला प्रश्न उसने किया, ‘‘आप उपासनाके समय जनेऊसहित सभी वस्त्र क्यों उतारते हैं ? यह पागलपन नहीं लगता क्या ?'' उसपर रामकृष्णजी बोले, ‘‘हरिदा, ईश्वरतक पहुंचनेके मार्गमें अनेक बाधाएं आती हैं । मैं जब जगन्माताका ध्यान करता हूं, तब द्वेष, मत्सर, भय, अहंकार, लोभ, मोह, जातिका अभिमान-जैसी अनेक बातोंका त्याग करनेका प्रयास करता हूं । नहीं तो ये सभी बातें मनमें कोलाहल मचाती हैं । जनेऊ अर्थात् जातिका अभिमान, ज्ञानका अहंकार, वह भी दूर करना आवश्यक है न ! अहंकारकी बाधाएं दूर करते हुए मुझे वहां (साध्यतक) पहुंचना है ।’’


आदर्श गुरुभक्त दयानन्द

लगभग सवा सौ वर्ष हुए, गुजरात प्रान्त के मोरबी राज्य के टंकारा नामक ग्राम में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम मूलशंकर रखा गया। इसके पिता अम्बाशंकर जी एक बड़े भूमिहार थे। वे शिवजी के बड़े भक्त थे। जब मूलशंकर बड़ा हुआ, तो उन्होंने अपने कुल की रीति के अनुसार उसे शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा। पिता ने पुत्र को समझाया कि सच्चे हृदय से शिवजी की पूजा करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्त को निहाल कर देते हैं। मूलशंकर ने निश्चय किया कि मैं बिना अन्न- जल ग्रहण किये सारी रात जागकर शिव जी की पूजा करूँगा और उन्हें प्राप्त करूँगा।

शिवरात्रि के दिन सायंकाल ग्राम के शिव- मंदिर में एक- एक करके भक्तों की टोलियाँ पहुँच गईं। मूलशंकर और इनके पिता भी मंदिर में आ गए। आज दिन- भर मूलशंकर ने कुछ भी खाया- पिया नहीं था।
मंदिर में आरती के बाद शिवजी की पूजन शुरू हुआ। जब आधी रात बीत गई तो एक- एक करके सब लोग सो गये। मूलशंकर के पिता भी सो गये। केवल मूलशंकर बार- बार आँखों पर जल के छींटे देकर शिवजी का पूजन करते रहे। उन्होंने देखा कि चूहे शिवलिंग पर चढ़कर मिठाई खाने लगे। यह देखकर उन्हें हृदय में शंका हुई कि सारे संसार को चलाने वाले शिवजी अगर अपने ऊपर से एक चूहे को नहीं हटा सकते, तो वे मेरी क्या रक्षा करेंगे?

उन्होंने अपने पिता को जगाया और उन्हें अपनी शंका बताई। उन्होंने उत्तर दिया- बेटा, सच्चे शिव तो कैलाश पर्वत पर रहते हैं, कलियुग में उनके दर्शन नहीं होते, इसलिए मंदिर में मूर्ति बनाकर उनकी पूजा की जाती है। इस उत्तर से मूलशंकर को संतोष नहीं हुआ और मूर्ति पूजा से उनका विश्वास उठ गया। साथ ही साथ यह प्रण भी कर लिया कि मैं सच्चे शिव को ढूँढ़कर उनकी ही पूजा करूँगा। अब मूलशंकर को भूख सताने लगी। वे पिता की आज्ञा लेकर घर लौट आये, माता से लेकर कुछ खा लिया और सो गये।

कुछ दिनों बाद आपकी छोटी बहिन का देहान्त हुआ। सारा परिवार रोता रहा, पर मूलशंकर की आँखों में कोई आँसू नहीं था। वह कोने में खड़ा सोच रहा था कि मृत्यु क्या है, इससे कैसे बचा जाए। फिर कुछ दिन बीतने पर इनके चाचा की मृत्यु हुई। ये भगवान के बड़े भक्त थे और मूलशंकर को बहुत प्यार करते थे। अब तो मूलशंकर फूट- फूटकर रोए और उन्होंने दूसरा प्रण किया कि मैं मौत को अवश्य जीतूँगा। ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’- होनहार बालक सदा हर बात को विचारा करते हैं और जब एक बार कोई निश्चय कर लेते हैं तो सारी आयु- भर उसे पाने के लिए जुट जाते हैं। कठोर से कठोर विपत्ति भी उन्हें अपने मार्ग से नहीं हटा सकती। फिर अन्त में अपने लक्ष्य को पाकर वे अमर हो जाते हैं।

अब मूलशंकर उदास रहने लगे। उन्होंने अपने मित्रों से किसी योगी का पता पूछा जो सच्चे शिव को प्राप्त करने और मृत्यु को जीतने का उपाय बता सके। उधर माता- पिता को चिन्ता हुई और उन्होंने उसका विवाह करने की ठान ली। जब मूलशंकर को पता लगा तो इन्होंने साफ- साफ कह दिया कि मैं विवाह नहीं करूँगा, योगाभ्यास से मृत्यु को जीतूँगा और सच्चे शिव को पाऊँगा। कुछ समय तो माता- पिता रुक गए पर फिर उन्होंने उनके विवाह की बात पक्की कर ही दी। अपनी धुन के पक्केमूलशंकर ने जब और कोई चारा न देखा तो अपने घर को सदा के लिए छोड़ दिया। इस समय इनकी आयु बाईस वर्ष की थी।

आपने घर छोड़ने के बाद संन्यास ले लिया। नाम हुआ दयानन्द। वर्षों जंगलों की खाक छानी। बड़े- बड़े महात्माओं की सेवा कर बहुत- कुछ सीखा, पर ज्ञानकी प्यास नहीं बुझी। अन्त में दण्डी स्वामी विरजानन्द के पास जाकर डेढ़ वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करते रहे। ये महात्मा सूरदास थे और मथुरा नगरी में रहते थे। जब तक ऋषि दयानन्द मथुरा में रहे, दिन- भर में यमुना जल के चालीसों घड़े लाकर अपने गुरुदेव को स्नान कराते, उनकी सेवा करते।

इन दिनों दयानन्द जी का शरीर देखते ही बनता था, लम्बा कद, बाहुएँ बड़ी- बड़ी, माथा- चौड़ा और मोटी- मोटी 
आँखें। शरीर का गठन बहुत सुन्दर था। इस समय आपकी आयु सैंतीस वर्ष की थी। इन दिनों मथुरा में स्थान- स्थान पर उनके ब्रह्मचर्य व्रत और त्याग की प्रशंसा होती थी। पर महात्मा दयानन्द सदा नीची दृष्टि रखकर चलते थे। यदि कोई छोटी- सी बालिका भी सामने आ जाती तो माता कहकर सिर झुका देते थे।

एक बार ऋषि दयानन्द अपने गुरु की कुटिया में झाड़ू लगा रहे थे। सब गन्दगी एक कोने में बटोर रहे थे कि गुरुदेव भी उधर ही आ गए और उनका पाँव उसमें जा लगा। इस पर उन्होंने दयानन्द को बहुत पीटा। महर्षि दयानन्द जी उठकर गुरुजी के हाथ- पाँव दबाने लगे और कहा कि गुरुदेव मेरा शरीर तो पत्थर जैसा है और आपका शरीर कोमल है। आपको मुझे मारते समय कष्ट होता होगा, इसलिए मुझे मत मारा करें। कहते हैं, उस चोट का निशान सारी आयुभर आपकी दाईं बाहु पर बना रहा। जब भी उसे देखते, गुरु के उपकारों को याद करने लग जाते।



पढ़ाई समाप्त होने पर गुरु की आज्ञा से महर्षि दयानन्द देश में बढ़ती हुई अविद्या को मिटाने में जुट गये। इन दिनों लोगों ने आपको 48- 48 घंटे लगातार समाधि में बैठे देखा। आपका चेहरा तेजोमय चक्र से घिरा रहता था। आपने छोटी आयु में विवाह, अनमेल विवाह, मूर्ति- पूजा आदि कई समाज की बुराइयों का कठोरता से खंडन किया। एक ईश्वर की पूजा, ब्रह्मचर्य व्रत और वेदों के पठन- पाठन का बहुत प्रचार किया।

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