हमारे क्रांतिकारी

सुभाषचंद्र बोस


५ जुलाईको आजाद हिंद सेनाका ६५ वां स्थापनादिवस मनाया जाएगा ! आजाद हिंद सेनाके संस्थापक नेताजी सुभाषचंद्र बोस उग्रमतवादी क्रांतिकारी थे । अंगे्रजोंको परास्त करनेके लिए भारतकी स्वतंत्रता संग्रामकी अंतिम लडाईका नेतृत्व नियतीने नेताजीके हाथों सौंपा था । नेताजीने यह पवित्र कार्य असीम साहस एवं तन, मन, धन तथा प्राणका त्याग करनेमें तत्पर रहनेवाले हिंदी सैनिकोंकी ‘आजाद हिंद सेना' संगठनद्वारा पूर्ण किया । इस संगठनका अल्पसा परिचय !

ब्रिटिश सेनाके हिंदी सैनिकोंका नेताजीने बनाया संगठन !

अंग्रेजोंकी स्थानबद्धतासे भाग जानेपर नेताजीने फरवरी १९४३ तक जर्मनीमें ही वास्तव्य किया । वे जर्मन सर्वसत्ताधीश हिटलरसे अनेक बार मिले और उसे हिंदुस्थानकी स्वतंत्रताके लिए सहायताका आवाहन भी किया । दूसरे महायुद्धमें विजयकी ओर मार्गक्रमण करनेवाले हिटलरने नेताजीrको सर्व सहकार्य देना स्वीकार किया । उस अनुसार उन्होंने जर्मनीकी शरणमें आए अंग्रेजोंकी सेनाके हिंदी सैनिकोंका प्रबोधन करके उनका संगठन बनाया । नेताजीrके वहांके भाषणोंसे हिंदी सैनिक देशप्रेममें भावविभोर होकर स्वतंत्रताके लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते थे ।
आजाद हिंद सेनाकी स्थापना और ‘चलो दिल्ली' का नारा !
नेताजीके मार्गदर्शनानुसार पूर्व एशियाई देशोंमें पहलेसे ही रहनेवाले रासबिहारी बोसने हिंदी सेनाका संगठन किया । इस हिंदी सेनासे मिलने नेताजी ९० दिन पनडुब्बीसे यात्रा करते समय मृत्युसे जूझते जुलाई वर्ष १९४३ में जापानकी राजधानी टोकियो पहुंचे । रासबिहारी बोसजीने इस सेनाका नेतृत्व नेताजीके हाथों सौंपकर दिया । ५ जुलाई १९४३ को सिंगापुरमें नेताजीने ‘आजाद हिंद सेना’की स्थापना की । उस समय सहस्रों सैनिकोंके सामने ऐतिहासिक भाषण करते हुए वे बोले, ‘‘सैनिक मित्रों ! आपकी युद्धघोषणा एक ही रहे ! चलो दिल्ली ! आपमें से कितने लोग इस स्वतंत्रतायुद्धमें जीवित रहेंगे, यह तो मैं नहीं जानता; परंतु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि अंतिम विजय अपनी ही है । इसलिए उठो और अपने अपने शस्त्रास्त्र लेकर सुसज्ज हो जाओ । हमारे भारतमें आपसे पहले ही क्रांतिकारकोंने हमारे लिए मार्ग बना रखा है और वही मार्ग हमें दिल्लीतक ले जाएगा । ....चलो दिल्ली ।''
‘रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट'की स्थापना !
नेताजीने झांसीकी रानी रेजिमेंटके पदचिन्होंपर महिलाओंके लिए ‘रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट'की स्थापना की । पुरुषोंके कंधेसे कंधा मिलाकर महिलाओंको भी सैनिक प्रशिक्षण लेना चाहिए, इस भूमिकापर वे दृढ रहे । नेताजी कहते, हिंदुस्थानमे १८५७ के स्वतंत्रतायुद्धमें लडनेवाली झांसीकी रानीका आदर्श सामने रखकर महिलाओंको भी स्वतंत्रतासंग्राममें अपना सक्रिय योगदान देना चाहिए ।'
आजाद हिंद सेनाद्वारा धक्का !
१९ मार्च १९४४ के ऐतिहासिक दिन आजाद हिंद सेनाने भारतकी भूमिपर कदम रखा । इंफाल, कोहिमा आदि स्थानोंपर इस सेनाने ब्रिटिश सेनापर विजय प्राप्त की । इस विजयनिमित्त २२ सितंबर १९४४ को किए हुए भाषणमें नेताजीने गर्जना की कि, ‘‘अपनी मातृभूमि स्वतंत्रताकी मांग कर रही है ! इसलिए मैं आज आपसे आपका रक्त मांग रहा हूं । केवल रक्तसे ही हमें स्वतंत्रता मिलेगी । तुम मुझे अपना रक्त दो । मैं तुमको स्वतंत्रता दूंगा !'' (‘‘दिल्लीके लाल किलेपर तिरंगा लहरानेके लिए तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा'') यह भाषण इतिहासमें अजरामर हुआ । उनके इन हृदय झकझोर देनेवाले उद्गारोंसे उपस्थित हिंदी युवाओंका मन रोमांचित हुआ और उन्होंने अपने रक्तसे प्रतिज्ञा लिखी ।
रणक्षेत्रकी ओर अर्थात् सयाम जाते समय १८ अगस्त १९४५ को फार्मोसा द्वीपपर उनका बॉम्बर विमान गिरकर नेताजीका हदयद्रावक अंत हुआ ।
आजाद हिंद सेना दिल्लीतक नहीं पहुंच पाई; परंतु उस सेनाने जो प्रचंड आवाहन् बलाढ्य ब्रिटिश साम्राज्यके सामने खडा किया, इतिहासमें वैसा अन्य उदाहरण नहीं ।
ब्रिटिश भयभीत हो गए और नेहरू भी झुके !
स्वतंत्रताके लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाली नेताजीकी आजाद हिंद सेनाको संपूर्ण भारतवासियोंका उत्स्फूर्त समर्थन प्राप्त था । आजाद हिंद सेनाके सैनिकोंकी निस्वार्थ देशसेवासे ही स्वतंत्रताकी आकांक्षा कोट्यवधी देशवासियोंके मनमें निर्माण हुई ।

भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव



हुतात्मा भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेवकी फांसीसे पूर्व उनके सहयोगियोंके साथ हुई अंतिम भेंट !
‘भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव इन महान क्रांतिकारियोंको फांसीका दंड सुनाया गया था । उस समय उनके साथ इस षड्यंत्रमें सहभागी शिवकर्मा, जयदेव कपूर एवं अन्य सहयोगियोंको आजन्म कारावासका दंड सुनाया गया था । जिन सहयोगियोंको आजन्म कारावास मिला था उन्हें अगले दिन बंदीगृह ले जानेवाले थे । तब बंदीगृहके वरिष्ठ अधिकारियोंने भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेवसे अंतिम भेंट करनेकी उन्हें अनुमति दी ।

इस भेंटमें जयदेव कपूरने भगतसिंहसे पूछा, ‘आपको फांसी दी जा रही है । युवावस्थामें मृत्युका सामना करते हुए क्या आपको दु:ख नहीं हो रहा ? तब भगतसिंहने हंसकर कहा, ‘अरे ! मेरे प्राणोंके बदलेमें ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की घोषणा हिंदुस्थानके गली-कूचोंमें पहुंचानेमें मैं सफल हुआ हूं और इसे ही मैं अपने प्राणोंका मूल्य समझता हूं । आज इस बंदीगृहके बाहर मेरे लाखों बंधुओंके मुखसे मैं यही घोषणा सुन रहा हूं । इतनी छोटी आयुमें इससे अधिक मूल्य कौन-सा हो सकता है ?’ उनकी तेजस्वी वाणीसे सभीकी आंखें भर आर्इं । सभीने बडी कठिनाईसे अपनी सिसकियां रोकीं । तब उनकी अवस्था देखकर भगतसिंह बोले, ‘मित्रों, यह समय भावनाओंमें बहनेका नहीं है । मेरी यात्रा तो समाप्त हो ही गई है; परंतु आपको तो अभी अत्यंत दूरके लक्ष्यतक जाना है । मुझे विश्वास है कि आप न हार मानेंगे और न ही थककर बैठ जाएंगे ।’

उन शब्दोंसे उनके सहयोगियोंमें अधिक जोश उत्पन्न हुआ । उन्होंने भगतसिंहको आश्वासन दिया कि ‘देशकी स्वतंत्रताके लिए हम अंतिम सांसतक लढेंगे’, और इस प्रकार यह भेंट पूर्ण हुई । इसके पश्चात् भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेवके बलिदानसे हिंदुस्थानवासियोंके मनमें देशभक्तिकी ज्योत अधिक तीव्रतासे जलने लगी ।’

बिपिनचंद्र पाल



‘राष्ट्रवादके महानतम पुरोधाओंमें एक' इस प्रकारसे वर्णित बिपिनचंद्र पाल, भारतके राजनैतिक इतिहासमें लोकमान्य तिलक तथा लाल लाजपत रायके साथ किए गए सहयोगके कारण स्वतंत्रता संग्रामसे जुड गए थे । साहस, सहयोग एवं त्यागके द्वारा संपूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता अथवा स्वराज्यकी मांग की ।

‘पाल’ शिक्षक, पत्रकार, लेखक तथा ग्रंथपाल थे । ब्राह्मो समाजके समर्थकके रूपमें आरंभ कर, बिपिनचंद्र वेदांतकी ओर झुके तथा अंततः श्री चैतन्यके वैष्णव दर्शनके पुरोधा रहे । एक कट्टर समाजसुधारकके रूपमें उन्होंने जीवनमें दो बार उच्चभ्रू समाजकी विधवाओंसे विवाह किया । उन्होंने राजाराममोहन राय, केशवचंद्र सेन, श्री अरविंद घोष, रविंद्रनाथ टैगोर, आशुतोष मुखर्जी तथा एनी बेसेंट प्रभृति आधुनिक भारतके निर्माताओंपर शोधमूलक ज्ञानप्रद लेखमाला भी लिखी । व्यापक दृष्टिकोण देनेवाली ‘सामंजस देशभक्ति'का उन्होंने उपदेश दिया । ‘परिदर्शक' (१८८६ - बांग्ला साप्ताहिक), ‘न्यू इंडिया (१९०२ - अंग्रेजी साप्ताहिक) तथा बंदे मातरम (१९०६ - बांग्ला दैनिक) ये उनके द्वारा चलाए गए कुछ पत्र हैं ।

सिलहट (अबका बांग्लादेश) में एक गांवके एक संपन्न परिवारमें ७ नवंबर १८५८ के दिन जन्मे पालको अपना शिक्षण माध्यमिक स्तरपर ही छोड देना पडा । इस समय वे केशवचंद्र सेन तथा पं. शिवनाथ शास्त्री जैसे विख्यात बंगाली नेताओंके प्रभावमें आए । श्री अरविंदके विरुद्ध वंदे मातरम अभियोगमें साक्ष्य देना अस्वीकार करनेके कारण उन्हें ६ महीने सश्रम कारावास भोगना पडा । उन्होंने इंग्लैंड (३ बार) तथा अमरीका भ्रमण भी किया ।

पालने १९२० में गांधीके असहयोग आंदोलनका विरोध भी किया । १८८६ में सिलहटके प्रतिनिधिके रूपमें उन्होंने कॉंग्रेस अधिवेशनमें भाग भी लिया । १९२० में सक्रिय राजनीतिसे लगभग संन्यास लेकर वे राष्ट्रीय प्रश्नोंपर टिप्पणी मात्र करते रहे । २० मई १९३२ के दिन यह महान देशभक्त चिरनिद्रामें लीन हो गया ।

खुदीराम बोस



भारतके सबसे युवा क्रांतिकारीके रूपमें परिचित खुदीराम बोस अपनी आयुके केवल १९ वें वर्षमें ही वीरगतिको प्राप्त हुए । उनका जन्म बंगालमें स्थित मेदिनीपुर जिलेके बहुवेनी गांवमें दि. ३ दिसंबर १८८९ को हुआ था । बाल्यावस्थामें ही माता (लक्ष्मीप्रियादेवी) तथा पिता (त्रैलोक्यनाथ) की मृत्यु होनेके कारण बडी बहन अनुरूपादेवी तथा उनके पति अमृतलाल ने उनका पालनपोषण किया ।

ब्रिटिश शासनने वर्ष १९०३ में बंगाल प्रांतका विभाजन करना निश्चित किया । सामान्य जनोंमें अत्यंत निराशाकी लहर फैल गई । खुदीरामको भी बंगालके विभाजनका यह निर्णय अन्यायकारी लगा, उनके मनमें देशके लिए कुछ करनेके विचार बारंबार आनेके कारण मिदनापुरमें थोडी-बहुत शिक्षा लेनेके पश्चात् उन्होंने सशस्त्र क्रांतिके मार्गको स्वीकार किया । सरकारके विरूद्ध आंदोलन करनेवालोंको पकडकर कठोर दंड दिए जाने लगे । कुछ ही दिनोंमें मुजफ्फरपुरके मजिस्ट्रेटका, जो क्रांतिकारियोंको अमानुषिक दंड देते थे, वध करनेका दायित्व क्रांतिकारियोंके नेता बारीद्रकुमार एवं उपेंद्रनाथ को दिया तथा उनकी सहायताके लिए प्रफुल्लचंद्र चक्रवर्तीको नियुक्त किया । वे दोनों ही मुजफ्फरपुर आए एवं मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड पर ध्यान रखकर अवसरकी प्रतीक्षा करने लगे । मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्डका वध करनेके उपरांत ही उन्होंने शासनके विरोधका संकल्प लिया । बंकिमचंद्र चट्टोपाध्यायजी के आनंदमठ उपन्यासमें वंदे मातरम गीतके माध्यमसे उन्होंने लोगोंमें नवजीवनका संचार किया । खुदीरामने किंग्जफोर्डके वधका दायित्व स्वीकार किया । दि. १अप्रैल १९०५ के दिन किंग्जफोर्ड की गाडीपर बम फेंककर उसका वध करना निश्चित हुआ एवं उसके अनुसार एक बम फेंका गया; परंतु वह बम गलतीसे दूसरी गाडीपर फेंके जानेसे उस गाडीमें सवार दो महिलाओंकी मृत्यु होगई एवं किंग्जफोर्ड बच गया । खुदीराम एवं उनके सहायक तत्काल वहांसे भाग गए । उसी रात खुदीराम चालीस कि.मी. दूर भागकर बेनी रेल स्टेशनपर आ गए । भूख लगनेके कारण वह एक दुकानपर चने ले रहे थे, उस समय वहांका स्टेशनमास्टर र्पोटरको कह रहा था, 'अरे, इस समाचारको पढा क्या?' मजफ्फरपुरमें दो मैडमोंकी हत्या कर दो लोग फरार हो गए हैं, उनको पकडनेके लिए वारंट निकाला गया है । अभी आनेवाली गाडीमें कोई मिलता है क्या देखो । खुदीरामने यह बात सुनतेही एकदमसे कहा, ''क्या, किंग्जफोर्ड मरा नहीं ।'' निकटके लोगोंको उनके इस वक्तव्यसे आश्चर्य लगा एवं उन्हें आशंका हुई । तत्काल खुदीराम वहांसे भागे । घटनाके दूसरे दिन खुदीराम पकडे गए, प्रफुल्लने उनके पकडे जानेसे पूर्व ही आत्महत्या कर ली थी । खुदीरामके पास दो पिस्तौलें एवं ३० कारतूसें मिलीं । उनपर धारा ३०२ के अंतर्गत अभियोग चलाकर फांसीका दंड दिया गया । २२ अगस्त १९०८ के दिन यह युवक हाथमें गीता लेकर एवं ‘भारतमाता’ की जय कहते हुए हंसते हंसते प्रसन्नतापूर्वक फांसीपर चढ गया । सशस्त्र क्रांतिमें बमका उपयोग करनेवाला खुदीराम देशका पहला क्रांतिकारी बना ।

सरदार ऊधमसिंग


ब्रिटिश साम्राज्यका दृढ शत्रु

५ जून १९४० लंदनका ओल्ड बेली न्यायालय । न्यायाधीश अ‍ॅटकिन्सनके सामने लगभग चालीस वर्षकी अवस्थाका हृष्ट-पुष्ट एक हिंदुस्थानी बंदी बडे अभिमानसे अपना वक्तव्य पढ रहा था । न्यायधीशके दंड सुनानेके पूर्वका यह उसका अंतिम वक्तव्य था । उसने कहा, ‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवादके हिंदुस्थानमें मैंने जनताको दाने-दानेके लिए मरते हुए देखा है । अमृतसरके जलियांवाला बागमें जनरल डायर और माइकल ओडायरके आदेशपर किए हुए क्रूर हत्याकांडका दृश्य मैं आज भी नहीं भूला हूं । इन्हीं घटनाओंसे मैंने ब्रिटिश साम्राज्यके विरुद्ध प्रतिशोध लेनेकी मन-ही-मन शपथ ली थी । ओडायरका वध करके यदि मैं यह प्रतिशोध न लेता, तो हिंदुस्थानके नामको कलंक लग जाता ! तुम्हारे १०, १५ अथवा २० वर्षोंके कारावासका अथवा मृत्युदंडका मुझे भय नहीं । वृद्धावस्थातक ऐसे जीनेसे क्या लाभ, जिसमें कोई उद्देश्य ही न हो । अपने उद्देश्यपूर्तिके लिए, मरनेमें ही खरा पुरुषार्थ है, फिर यह कार्य युवावस्थामें ही क्यों न हो ! अपने देशके सम्मानकी रक्षाके लिए अपने प्राणोंकी आहुति देनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, यह तो मेरे लिए गौरवकी बात है !''

उसका वक्तव्य २० मिनट चला । ब्रिटिश शासनद्वारा हिंदुस्थानपर किए जा रहे अत्याचारोंका ऐसा स्पष्ट वर्णन सुनना न्यायाधीशको भी असह्य हुआ । निवेदन समाप्त हुआ, तब न्यायाधीश इतने क्रोधित थे कि मृत्युदंड (फांसी) सुनाते समय सिर पर काली टोपी चढाए बिना, ही उन्होंने उस बंदीके वक्तव्यके प्रकाशनपर प्रतिबंध लगाया दिया और दंड सुनाने लगे । इतनेमें उनके पास खडे किसी अधिकारीने उनके सिर पर काली टोपी रखी, फिर उन्होंने बंदीसे कहा, ‘तुम्हें मैं मृत्युदंड सुनाता हूं !’
इस महा पराक्रमी बंदीका नाम था ऊधमसिंह !
पंजाबशार्दूल सरदार ऊधमसिंहका जन्म पटियाला जनपदके सुनाम गांवमें २८ दिसंबर १८९९ को हुआ । १९१९ के जलियांवाला बाग हत्याकांडके वे प्रत्यक्ष दर्शी थे । इस सभामें वह स्वयंसेवकके रूपमें पानी देनेकी सेवा कर रहे थे । गोलियां चलनेपर उनके हाथमें भी गोली लगी और वे धरतीपर गिर पडे; परंतु अपने देशबांधवोंकी कारुणिक चीत्कारें सुनकर वे उन्हें पानी देनेके लिए पुनः उठे । ३७३ निरपराध लोगोंको मारनेवाले और १५०० से भी अधिक लोगोंको आहत करनेवाले इस हत्याकांडका आदेश उस समयके पंजाबके लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओडायरने दिया था । तभीसे ऊधमसिंहके मनमें प्रतिशोधकी अग्नि धधक रही थी ।
२१ वर्षोंके पश्चात् हिंदुस्थानका कलंक अपने रुधिरसे धो दिया !
सरदार ऊधमसिंग कुछ समय भगतसिंहके साथ थे । उस समय उनके पास शस्त्रास्त्र और विस्फोटक (गोलाबारूद) मिले । उस प्रकरणमें उन्हें ५ वर्षोंका कारावास भी हुआ था । कारागृहसे छूटते ही वे १९३३ में वे इंग्लैंड गए । इसी कालावधिमें उन्होंने हिंदुस्थानसे इंग्लैंड लौटे ओडायरका वध करनेका दृढ निश्चय किया । इसके लिए उन्होंने ओडायरसे मित्रता बढाई । यह मित्रता इतनी गहरी थी कि १९४० में मृत्युपूर्व ओडायरने डेवॉनशायरके अपने घरपर उन्हें चाय-पानीके लिए आमंत्रित किया था और उन्होंने इस आमंत्रणको सहर्ष स्वीकार भी किया । इस समय वे ओडायरको मार सकते थे; परंतु उन्हें तो ओडायरका प्रतिशोध सार्वजनिक स्थानपर तथा सबके सामने लेना था । इसलिए उन्होंने ओडायरको उसके घरमें मारना उचित नहीं समझा ! १३ मार्च १९४० को जहां मदनलाल ढींगराने कर्जन वायलीका वध किया था, उसी वॅâक्स्टन हॉलमें शामको एक सभा थी । भारतमंत्री लॉर्ड जेटलैंड सभाके अध्यक्ष स्थानपर थे । सभामें भाषण करनेके लिए पर्सी साईक्स, मायकेल ओडायर आदि मान्यवर लोग आए थे । सबका भाषण समाप्त होते ही ऊधमसिंह आगे बढे और तीन गज दूर रुककर उन्होंने प्रथम पंक्तिमें बांर्इं ओर बैठे ओडायरपर दो गोलियां चलायीं । वह वहीं ढेर हो गया । उसके पश्चात् दो-दो गोलियां लॉर्ड जेटलैंड, लॉर्ड लैमिंगटन और सर लुई डेनको लगीं; परंतु वे सब केवल आहत हुए ।
फांसीसे विवाह !
ऊधमसिंहको पकड लिया गया । कारागृहसे जोहलसिंह नामके मित्रको भेजे हुए पत्रमें वे लिखते हैं, ‘‘मुझे मृत्युका भय कभी भी नहीं लगता । मैं शीघ्र ही फांसीसे विवाह करनेवाला हूं । मेरे सर्वोत्तम मित्रको (भगतसिंह) मुझे छोडकर गए हुए १० वर्ष हो गए । मेरी मृत्युके उपरांत उससे मेरी भेंट होगी । वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है ।'' इन्हीं दिनों कारागृहमें कुछ अन्याय होनेके कारण उन्होंने ४२ दिन अन्नत्याग भी किया था । अपेक्षानुसार ऊधमसिंहको मृत्युदंड सुनाया गया । सुनकर उन्होंने सरदार भगतसिंहको आदर्श मानकर तीनबार ‘इंकलाब जिंदाबाद !' यह घोषणा की और ब्रिटिश न्यायालयके प्रति तुच्छता तथा तिरस्कार दिखाने हेतु न्यायालयपर थूंक दिया ! ३१ जुलाई १९४० को पेंटनवील कारागृहमें उन्हें फांसी दे दी गई ।
व्यक्तिगत प्रतिशोध वर्ष-दो वर्षोंमें लिया जा सकता है; परंतु राष्ट्रका प्रतिशोध अनेक वर्षोंके उपरांत भी लिया जा सकता है । प्रखर देशभक्त तो केवल उस अवसरकी प्रतीक्षा करते हैं । २१ वर्षोंके उपरांत भी अपने राष्ट्रके अपमानका प्रतिशोध लेनेके लिए सच्चे भारतीय देशभक्त अपने प्राणोंपर भी खेल जाते हैं, यह ऊधमसिंहने सारे विश्वको दिखा दिया !

रामप्रसाद विस्मिल


रामप्रसाद विस्मिल ,भारतमाता के ऐसे अमर सपूत थे,जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिएअपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका जन्म सन १८९७ में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआथा। उनके पिता मुरलीधर शाहजहांपुर के नगरपालिका में काम करते थे। १९ दिसंबर ,सन 1927 में ब्रिटिश सरकार ने रामप्रसाद विस्मिल को फांसी दे दी।अमर शहीद रामप्रसाद 'बिस्मिल' का सरफरोसी की तमन्ना ही वह गीत है जिसे गाते हुए कितने ही देशभक्त फांसी के फन्दे को चूम लिये। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ नीचे दी जा रही है :
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है


सत्य के पुजारी महात्मा गांधी


आज से सौ वर्ष पहले आश्विन् वदि 12, संवत् 1925 को पोरबन्दर (गुजरात प्रान्त) में एक सम्मानित परिवार में महात्मा गांधी जी का जन्म हुआ। इनका नाम मोहनदास करमचन्द गांधीरखा गया। गुजरात में नाम रखने की रीति ऐसी है कि आगे पुत्र का नाम, पीछे पिता का नाम और अन्त में जाति का नाम होता है। ये अपने परिवार में सबसे छोटे और सबसे अधिक स्वस्थ और सुन्दर थे।

इनके पिता पोरबन्दर से राजकोट में जा बसे। वहीं पर सात वर्ष की आयु में इन्हें पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। जब हाईस्कूल के प्रथम वर्ष की परीक्षा का समय आया तो इंस्पेक्टर साहब परीक्षा लेने के लिए आये। स्कूल सजाया गया और अगले दिन सब बालक अच्छे- अच्छे कपड़े पहनकर स्कूल में आये।

गांधी जी की कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखवाये गये। चार शब्द तो सबने ठीक लिखे, पर पाँचवाँ शब्द बालक गांधी ने गलत लिखा। अध्यापक ने जब उसे गलत लिखते देखा तो इंस्पेक्टर महोदय की नजर बचाकर पाँव की ठोकर से उसे सावधान किया और इशारा किया कि अगले बालक की स्लेट पर से नकल कर ले। पर बालक गांधी के हृदय में ये संस्कार जमे थे कि नकल न करें, इसलिए उसने नकल न की। इस भूल पर उसे इंस्पेक्टर महोदय ने डाँटा और बाद में अन्य बालकों ने भी हँसी उड़ाई।

इंस्पेक्टर महोदय के जाने के बाद अध्यापक ने बालक गांधी को बुलाया और उससे पूछा कि मेरे संकेत करने पर भी तुमने नकल नहीं की और मेरा अपमान करवाया। इस पर बालक गांधी ने नम्रता से सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर कहा कि मास्टर जी! यह तो ठीक है कि आपने मुझे नकल करने के लिए संकेत किया था, पर भगवान् तो सब जगह मौजूद हैं, कोई स्थान उनसे खाली नहीं, इसलिए नकल कैसे करता? ऐसी सच्ची बात सुनकर अध्यापक को रोमांच हो आया। उसने बालक को पास बुलाया और आशीर्वाद दिया कि एक दिन संसार में तुम्हारा नाम खूब चमकेगा।


सिन्ध का क्रांतिवीर हेमू कालाणी

अंग्रेजों के शासनकाल में भारत का कोई प्रान्त सुरक्षित नहीं था। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सब ओर उनके अत्याचारों से लोग त्रस्त थे; पर जेल और फाँसी के भय से उनके विरुद्ध खड़े होने का साहस कम ही लोग दिखा पाते थे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे हेमू कालाणी, जिनका जन्म अविभाजित भारत के सिन्ध प्रान्त के सक्खर नगर में 11 मार्च, 1924 को हुआ था।

जहाँ एक ओर शासन के अत्याचार चरम पर थे, तो दूसरी ओर गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसक सत्याग्रह आन्दोलन भी चल रहा था। सत्याग्रहियों पर अंग्रेज पुलिस डण्डे बरसाती और गोली चलाती थी। फिर भी वे शान्त रहते थे। शासन से असहयोग और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही इनका एकमात्र शस्त्र था। वन्दे मातरम् और भारत माता की जय उनका प्रमुख नारा था।

दूसरी ओर एक धारा क्रान्तिकारियों की थी, जो शस्त्रों के बल पर अंग्रेजों को जबरन अपनी मातृभूमि से खदेड़ना चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि हथियारों के बल पर राज करने वालों को हथियारों की ताकत से ही भगाया जा सकता है। यों तो पूरे देश में इस विचार को मानने वाले युवक थे; पर बंगाल और पंजाब इनके गढ़ थे। हेमू भी इसी विचार का समर्थक था। इन वीर क्रान्तिकारियों की कहानियाँ वह अपने मित्रों को सुनाता रहता था।

एक बार हेमू को पता लगा कि गोरे सैनिकों की एक पल्टन विशेष रेल से सक्खर की ओर से गुजरने वाली है। यह पल्टन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के सत्याग्रहियों के दमन के लिए भेजी जा रही थी। हर दिन ऐसे समाचार प्रकाशित होते ही थे। हेमू गांधीवादी सत्याग्रह में विश्वास नहीं रखते थे।

उनसे यह नहीं सहा गया कि विदेशी सैनिक भारतीयों पर अत्याचार करें।
उन्होंने अपने कुछ मित्रों को एकत्र किया। उन्होंने सोचा कि यदि हम रेल की पटरियाँ उखाड़ दें, तो रेल दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगी। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे जायेंगे और अपने देशवासियों की रक्षा होगी।

इस योजना को सुनकर कुछ साथी डर गये; पर नन्द और किशन नामक दो युवक तैयार हो गये। तीनों हथौड़े, गंेती, सब्बल आदि लेकर सक्खर की बिस्कुट फैक्ट्री के पास एकत्र हुए। रेल लाइन उसके पास में ही थी।

उस समय चाँदनी रात थी। तीनों युवक तेजी से अपने काम में जुट गये। वे मस्ती में गीत गाते हुए निर्भयतापूर्वक अपने काम में लगे थे; पर दूसरी ओर प्रशासन भी सावधान था। उसने उस रेलगाड़ी की सुरक्षा के लिए विशेष रूप से कुछ सिपाही तैनात कर रखे थे। उन सिपाहियों ने जब कुछ आवाज सुनी, तो वे दौड़ पड़े और तीनों को पटरी उखाड़ते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया।

न्यायालय में उन पर मुकदमा चलाया गया। हेमू तो आत्मबलिदान के लिए तत्पर ही थे। उन्होंने अपने दोनों साथियों को बचाने के लिए इस कांड की पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायालय ने उसे फाँसी की सजा सुनायी। 23 जनवरी, 1943 को 19 वर्ष की सुकुमार अवस्था में यह क्रान्तिकारी हँसते हुए फाँसी पर चढ़ गया। उस समय उनके चेहरे का तेज देखते ही बनता था।

हेमू कालाणी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वह आजादी के दीवानों के लिए चिंगारी बन गये। सिन्ध के घर-घर में उसकी कथाएँ कही जाने लगीं। आज तो सिन्ध प्रान्त भारत में ही नहीं है; पर वहाँ से भारत आये लोग हेमू का स्मरण सदा करते हैं।


स्वतन्त्रता सेनानी रानी मां गाइडिन्ल्यू

देश की स्वतन्त्रता के लिए ब्रिटिश जेल में भीषण यातनाएँ भोगने वाली गाइडिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को नागाओं की रांगमेयी जनजाति में हुआ था। केवल 13 वर्ष की अवस्था में ही वह अपने चचेरे भाई जादोनांग से प्रभावित हो गयीं। जादोनांग प्रथम विश्व युद्ध में लड़ चुके थे।

युद्ध के बाद अपने गाँव आकर उन्होंने तीन नागा कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी और रांगमेयी में एकता स्थापित करने हेतु ‘हराका’ पन्थ की स्थापना की। आगे चलकर ये तीनों सामूहिक रूप से जेलियांगरांग कहलाये। इसके बाद वे अपने क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाने के प्रयास में लग गयेे।

इससे अंग्रेज नाराज हो गये। उन्होंने जादोनांग को 29 अगस्त 1931 को फाँसी दे दी; पर नागाओं ने गाइडिन्ल्यू के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने आन्दोलनरत गाँवों पर सामूहिक जुर्माना लगाकर उनकी बन्दूकें रखवा लीं। 17 वर्षीय गाइडिन्ल्यू ने इसका विरोध किया। वे अपनी नागा संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहती थीं। हराका का अर्थ भी शुद्ध एवं पवित्र है। उनके साहस एवं नेतृत्वक्षमता को देखकर लोग उन्हें देवी मानने लगे।

अब अंग्रेज गाइडिन्ल्यू के पीछे पड़ गये। उन्होंने उनके प्रभाव क्षेत्र के गाँवों में उनके चित्र वाले पोस्टर दीवारों पर चिपकाये तथा उन्हें पकड़वाने वाले को 500 रु. पुरस्कार देने की घाषिणा की; पर कोई इस लालच में नहीं आया। अब गाइडिन्ल्यू का प्रभाव उत्तरी मणिपुर, खोनोमा तथा कोहिमा तक फैल गया। नागाओं के अन्य कबीले भी उन्हें अपना नेता मानने लगे।

1932 में गाइडिन्ल्यू ने पोलोमी गाँव में एक विशाल काष्ठदुर्ग का निर्माण शुरू किया, जिसमें 40,000 योद्धा रह सकें। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे अन्य जनजातीय नेताओं से भी सम्पर्क बढ़ाया। गाइडिन्ल्यू ने अपना खुफिया तन्त्र भी स्थापित कर लिया। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। यह देखकर अंग्रेजों ने डिप्टी कमिश्नर जे.पी.मिल्स को उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी। 17 अक्तूबर, 1932 को मिल्स ने अचानक गाइडिन्ल्यू के शिविर पर हमला कर उन्हें पकड़ लिया।

गाइडिन्ल्यू को पहले कोहिमा और फिर इम्फाल लाकर मुकदमा चलाया गया। उन पर राजद्रोह के भीषण आरोप लगाकर 14 साल के लिए जेल के सीखचों के पीछे भेज दिया गया। 1937 में जब पंडित नेहरू असम के प्रवास पर आये, तो उन्होंने गाइडिन्ल्यू को ‘नागाओं की रानी’ कहकर सम्बोधित किया। तब से यही उनकी उपाधि बन गयी। आजादी के बाद उन्होंने राजनीति के बदले धर्म और समाज की सेवा के मार्ग को चुना।

1958 में कुछ नागा संगठनों ने विदेशी ईसाई मिशनरियों की शह पर नागालैण्ड को भारत से अलग करने का हिंसक आन्दोलन चलाया। रानी माँ ने उसका प्रबल विरोध किया। इस पर वे उनके प्राणों के प्यासे हो गये। इस कारण रानी माँ को छह साल तक भूमिगत रहना पड़ा। इसके बाद वे भी शान्ति के प्रयास में लगी रहीं।

1972 में भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र और फिर ‘पद्मभूषण’ देकर सम्मानित किया। वे अपने क्षेत्र के ईसाइकरण की विरोधी थीं। अतः वे वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् के अनेक सम्मेलनों में गयीं। आजीवन अविवाहित रहकर नागा जाति, हिन्दू धर्म और देश की सेवा करने वाली रानी माँ गाइडिन्ल्यू ने 17 फरवरी, 1993 को यह शरीर और संसार छोड़ दिया।

धर्मवीर हकीकतरायभारत वह वीरभूमि है, जहाँ हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों में छोटे बच्चे भी पीछे नहीं रहे। 1719 में स्यालकोट (वर्त्तमान पाकिस्तान) के निकट एक ग्राम में श्री भागमल खत्री के घर जन्मा हकीकतराय ऐसा ही एक धर्मवीर था।
हकीकतराय के माता-पिता धर्मप्रेमी थे। अतः बालपन से ही उसकी रुचि अपने पवित्र धर्म के प्रति जाग्रत हो गयी। उसने छोटी अवस्था में ही अच्छी संस्कृत सीख ली। उन दिनों भारत में मुस्लिम शासन था। अतः अरबी-फारसी भाषा जानने वालों को महत्त्व मिलता था। इसी से हकीकत के पिता ने 10 वर्ष की अवस्था में फारसी पढ़ने के लिए उसे एक मदरसे में भेज दिया। बुद्धिमान हकीकत वहाँ भी सबसे आगे रहता था। इससे अन्य मुस्लिम छात्र उससे जलने लगे। वे प्रायः उसे नीचा दिखाने का प्रयास करते थे; पर हकीकत सदा अध्ययन में ही लगा रहता था।

एक बार मौलवी को किसी काम से दूसरे गाँव जाना था। उन्होंने बच्चों को पहाड़े याद करने को कहा और स्वयं चले गये। उनके जाते ही सब छात्र खेलने लगे; पर हकीकत एक ओर बैठकर पहाड़े याद करता रहा। यह देखकर मुस्लिम छात्र उसे परेशान करने लगे। इसके बाद भी जब हकीकत विचलित नहीं हुआ, तो एक छात्र ने उसकी पुस्तक छीन ली।

यह देखकर हकीकत बोला - तुम्हें भवानी माँ की कसम है, मेरी पुस्तक लौटा दो। इस पर वह मुस्लिम छात्र बोला - तेरी भवानी माँ की ऐसी की तैसी। हकीकत ने कहा - खबरदार, जो हमारी देवी के प्रति ऐसे शब्द बोले। यदि मैं तुम्हारे पैगम्बर की बेटी फातिमा बी के लिए ऐसा कहूँ, तो तुम्हें कैसा लगेगा ? लेकिन वह तो लड़ने पर उतारू था। अतः हकीकत उसकी छाती पर चढ़ बैठा और मुक्कों से उसके चेहरे का नक्शा बदल दिया। उसका रौद्र रूप देखकर बाकी छात्र डर कर चुपचाप बैठ गये।

थोड़ी देर में मौलवी लौट आये। मुस्लिम छात्रों ने नमक-मिर्च लगाकर सारी घटना उन्हें बतायी। इस पर मौलवी ने हकीकत की पिटाई की और उसे सजा के लिए काजी के पास ले गये। काजी ने इस सारे विवाद को लाहौर के बड़े इमाम के पास भेज दिया। उसने सारी बात सुनकर निर्णय दिया कि हकीकत ने इस्लाम का अपमान किया है। अतः उसे मृत्युदण्ड मिलेगा; पर यदि वह मुसलमान बन जाये, तो उसे क्षमा किया जा सकता है।

बालवीर हकीकत ने सिर ऊँचा कर कहा - मैंने हिन्दू धर्म में जन्म लिया है और हिन्दू धर्म में ही मरूँगा। मौलवियों ने उसे और भी कई तरह के प्रलोभन दिये। हकीकत के माता-पिता और पत्नी भी उसे धर्म बदलने को कहने लगे, जिससे वह उनकी आँखों के सामने तो रहे; पर हकीकत ने स्पष्ट कह दिया कि व्यक्ति का शरीर मरता है, आत्मा नहीं। अतः मृत्यु के भय से मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म का त्याग नहीं करूँगा।

अन्ततः 4 फरवरी, 1734 (वसन्त पंचमी) को उस धर्मप्रेमी बालक का सिर काट दिया गया। जब जल्लाद सिर काटने के लिए बढ़ा, तो हकीकतराय के तेजस्वी मुखमण्डल को देखकर उसके हाथ से तलवार छूट गयी। इस पर हकीकत ने उसे अपना कर्त्तव्य पूरा करने को कहा। कहते हैं कि सिर कटने के बाद धरती पर न गिर कर आकाश मार्ग से सीधा स्वर्ग में चला गया। उसी स्मृति में वसन्त पंचमी को आज भी पतंगें उड़ाई जाती हैं।

पूर्वांचल के महान क्रान्तिवीर शम्भुधन फूंगलो

भारत में सब ओर स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले वीर हुए हैं। ग्राम लंकर (उत्तर कछार, असम) में शम्भुधन फूंगलो का जन्म फागुन पूर्णिमा, 1850 ई0 में हुआ। डिमासा जाति की कासादीं इनकी माता तथा देप्रेन्दाओ फूंगलो पिता थे। शम्भुधन के पिता काम की तलाश में घूमते रहते थे। अन्ततः वे माहुर के पास सेमदिकर गाँव में बस गये। यहीं शम्भुधन का विवाह नासादी से हुआ।

शम्भु बचपन से ही शिवभक्त थे। एक बार वह दियूंग नदी के किनारे कई दिन तक ध्यानस्थ रहे। लोगों के शोर मचाने पर उन्होंने आँखें खोलीं और कहा कि मैं भगवान शिव के दर्शन करके ही लौटूँगा। इसके बाद तो दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आने लगे। वह उनकी समस्या सुनते और उन्हें जड़ी-बूटियों की दवा भी देते। उन दिनों पूर्वांचल में अंग्रेज अपनी जड़ें जमा रहे थे। शम्भुधन को इनसे बहुत घृणा थी। वह लोगों को दवा देने के साथ-साथ देश और धर्म पर आ रहे संकट से भी सावधान करते रहते थे। धीरे-धीरे उनके विचारों से प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ने लगी।

एक समय डिमासा काछारी एक सबल राज्य था। इसकी राजधानी डिमापुर थी। पहले अहोम राजाओं ने और फिर अंग्रेजों ने 1832 ई0 में इसे नष्ट कर दिया। उस समय तुलाराम सेनापति राजा थे। वे अंग्रेजों के प्रबल विरोधी थे। 1854 ई0 में उनका देहान्त हो गया। अब अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में फैले विद्रोह को दबाने के लिए राज्य को विभाजित कर दिया।

शम्भुधन ने इससे नाराज होकर एक क्रान्तिकारी दल बनाया और उसमें उत्साही युवाओं को भर्ती किया। माइबांग के रणचंडी देवी मंदिर में इन्हें शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार प्रशिक्षित युवकों को उन्होंने उत्तर काछार जिले में सब ओर नियुक्त किया। इनकी गतिविधियों से अंग्रेजों की नाक में दम हो गया।

उस समय वहाँ अंग्रेज मेजर बोयाड नियुक्त था। वह बहुत क्रूर था। वह एक बार शम्भुधन को पकड़ने माइबांग गया; पर वहाँ युवकों की तैयारी देखकर डर गया। अब उसने जनवरी 1882 में पूरी तैयारी कर माइबांग शिविर पर हमला बोला; पर इधर क्रान्तिकारी भी तैयार थे। मेजर बोयाड और सैकड़ों सैनिक मारे गये। अब लोग शम्भु को ‘कमाण्डर’ और ‘वीर शम्भुधन’ कहने लगे।

शम्भुधन अब अंग्रेजों के शिविर एवं कार्यालयों पर हमले कर उन्हें नष्ट करने लगे। उनके आतंक से वे भागने लगे। उत्तर काछार जिले की मुक्ति के बाद उन्होंने दक्षिण काछार पर ध्यान लगाया और दारमिखाल ग्राम में शस्त्र निर्माण भी प्रारम्भ किया। कुछ समय बाद उन्होंने भुवन पहाड़ पर अपना मुख्यालय बनाया। यहाँ एक प्रसिद्ध गुफा और शिव मन्दिर भी है। उनकी पत्नी भी आन्दोलन में सहयोग करना चाहती थी। अतः वह इसके निकट ग्राम इग्रालिंग में रहने लगी। शम्भुधन कभी-कभी वहाँ भी जाने लगे।

इधर अंग्रेज उनके पीछे लगे थे। 12 फरवरी, 1883 को वह अपने घर में भोजन कर रहे थे, तो सैकड़ों अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। उस समय शम्भुधन निःशस्त्र थे। अतः वह जंगल की ओर भागे; पर एक सैनिक द्वारा फेंकी गयी खुखरी से उनका पाँव बुरी तरह घायल हो गया। अत्यधिक रक्तòाव के कारण वह गिर पड़े। उनके गिरते ही सैनिकों ने घेर कर उनका अन्त कर दिया। इस प्रकार केवल 33 वर्ष की छोटी आयु में वीर शम्भुधन ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।



सह्याद्रि का शेर वासुदेव बलवंत फड़के

बात 1870 की है। एक युवक तेजी से अपने गाँव की ओर भागा जा रहा था। उसके मुँह से माँ-माँ....शब्द निकल रहे थे; पर दुर्भाग्य कि उसे माँ के दर्शन नहीं हो सके। उसका मन रो उठा। लानत है ऐसी नौकरी पर, जो उसे अपनी माँ के अन्तिम दर्शन के लिए भी छुट्टी न मिल सकी।

वह युवक था वासुदेव बलवन्त फड़के। लोगों के बहुत समझाने पर वह शान्त हुआ; पर माँ के वार्षिक श्राद्ध के समय फिर यही तमाशा हुआ और उसे अवकाश नहीं मिला। अब तो उनका मन विद्रोह कर उठा। उनका जन्म चार नवम्बर, 1845 को ग्राम शिरढोण (पुणे) में हुआ था। उनके पूर्वज शिवाजी की सेना में किलेदार थे; पर इन दिनों वे सब किले अंग्रेजों के अधीन थे।

छोटी अवस्था में ही वासुदेव का विवाह हो गया। शिक्षा पूर्णकर उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी; पर स्वाभिमानी होने के कारण वे कहीं लम्बे समय तक टिकते नहीं थे। महादेव गोविन्द रानडे तथा गणेश वासुदेव जोशी जैसे देशभक्तों के सम्पर्क में आकर फड़के ने ‘स्वदेशी’ का व्रत लिया और पुणे में जोशीले भाषण देने लगे।

1876-77 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल और महामारी का प्रकोप हुआ। शासन की उदासी देखकर उनका मन व्यग्र हो उठा। अब शान्त बैठना असम्भव था। उन्होंने पुणे के युवकों को एकत्र किया और उन्हें सह्याद्रि की पहाड़ियों पर छापामार युद्ध का अभ्यास कराने लगे। हाथ में अन्न लेकर ये युवक दत्तात्रेय भगवान की मूर्ति के सम्मुख स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा लेते थे।

वासुदेव के कार्य की तथाकथित बड़े लोगों ने उपेक्षा की; पर पिछड़ी जाति के युवक उनके साथ समर्पित भाव से जुड़ गये। ये लोग पहले शिवाजी के दुर्गों के रक्षक होते थे; पर अब खाली होने के कारण चोरी-चकारी करने लगे थे। मजबूत टोली बन जाने के बाद फड़के एक दिन अचानक घर पहुँचे और पत्नी को अपने लक्ष्य के बारे में बताकर उससे सदा के लिए विदा ले ली।

स्वराज्य के लिए पहली आवश्यकता शस्त्रों की थी। अतः वासुदेव ने सेठों और जमीदारों के घर पर धावा मारकर धन लूट लिया। वे कहते थे कि हम डाकू नहीं हैं। जैसे ही स्वराज्य प्राप्त होगा, तुम्हें यह धन ब्याज सहित लौटा देंगे। कुछ समय में ही उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे; पर इन गतिविधियों से शासन चौकन्ना हो गये। उसने मेजर डेनियल को फड़के को पकड़ने का काम सौंपा।

डेनियल ने फड़के को पकड़वाने वाले को 4,000 रु0 का पुरस्कार घोषित किया। अगले दिन फड़के ने उसका सिर काटने वाले को 5,000 रु0 देने की घोषणा की। एक बार पुलिस ने उन्हें जंगल में घेर लिया; पर वे बच निकले। अब वे आन्ध्र की ओर निकल गये। वहा भी उन्होंने लोगों को संगठित किया; पर डेनियल उनका पीछा करता रहा और अन्ततः वे पकड़ लिये गये।

उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर अदन भेज दिया गया। मातृभूमि की कुछ मिट्टी अपने साथ लेकर वे जहाज पर बैठ गये। जेल में अमानवीय उत्पीड़न के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक रात में वे दीवार फाँदकर भाग निकले; पर पुलिस ने उन्हेें फिर पकड़ लिया। अब उन पर भीषण अत्याचार होने लगे। उन्हें क्षय रोग हो गया; पर शासन ने दवा का प्रबन्ध नहीं किया।

17 फरवरी, 1883 को इस वीर ने शरीर छोड़ दिया। मृत्यु के समय उनके हाथ में एक पुड़िया मिली, जिसमें भारत भूमि की पावन मिट्टी थी।


हिन्दी और हिन्दुत्व प्रेमी वीर सावरकर

वीर विनायक दामोदर सावरकर दो आजन्म कारावास की सजा पाकर कालेपानी नामक कुख्यात अन्दमान की सेल्युलर जेल में बन्द थे। वहाँ पूरे भारत से तरह-तरह के अपराधों में सजा पाकर आये बन्दी भी थे। सावरकर उनमें सर्वाधिक शिक्षित थे। वे कोल्हू पेरना, नारियल की रस्सी बँटना जैसे सभी कठोर कार्य करते थे। इसके बाद भी उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं।

भारत की एकात्मता के लिए हिन्दी की उपयोगिता समझकर उन्होंने खाली समय में बन्दियों को हिन्दी पढ़ाना प्रारम्भ किया। उन्होंने अधिकांश बन्दियों को एक ईश्वर, एक आत्मा, एक देश तथा एक सम्पर्क भाषा के लिए सहमत कर लिया। उनके प्रयास से अधिकांश बन्दियों ने प्राथमिक हिन्दी सीख ली और वे छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने लगे।

अब सावरकर जी ने उन्हें रामायण, महाभारत, गीता जैसे बड़े धर्मग्रन्थ पढ़ने को प्रेरित किया। उनके प्रयत्नों से जेल में एक छोटा पुस्तकालय भी स्थापित हो गया। इसके लिए बन्दियों ने ही अपनी जेब से पैसा देकर ‘पुस्तक कोष’ बनाया था।

जेल में बन्दियों द्वारा निकाले गये तेल, उसकी खली-बिनौले तथा नारियल की रस्सी आदि की बिक्री की जाती थी। इसके लिए जेल में एक विक्रय भण्डार बना था। जब सावरकर जी को जेल में रहते काफी समय हो गया, तो उनके अनुभव, शिक्षा और व्यवहार कुशलता को देखकर उन्हें इस भण्डार का प्रमुख बना दिया गया। इससे उनका सम्पर्क अन्दमान के व्यापारियों और सामान खरीदने के लिए आने वाले उनके नौकरों से होने लगा।

वीर सावरकर ने उन सबको भी हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी। वे उन्हें पुस्तकालय की हिन्दी पुस्तकें और उनके सरल अनुवाद भी देने लगे। इस प्रकार बन्दियों के साथ-साथ जेल कर्मचारी, स्थानीय व्यापारी तथा उनके परिजन हिन्दी सीख गये। अतः सब ओर हिन्दी का व्यापक प्रचलन हो गया।

सावरकर जी के छूटने के बाद भी यह क्रम चलता रहा। यही कारण है कि आज भी केन्द्र शासित अन्दमान-निकोबार द्वीपसमूह में हिन्दी बोलने वाले सर्वाधिक हैं और वहाँ की अधिकृत राजभाषा भी हिन्दी ही है।

अन्दमान में हिन्दू बन्दियों की देखरेख के लिए अंग्रेज अधिकारियों की शह पर तीन मुसलमान पहरेदार रखे गये थे। वे हिन्दुओं को अनेक तरह से परेशान करते थे। गालियाँ देना, डण्डे मारना तथा देवी-देवताओं को अपमानित करना सामान्य बात थी।

वे उनके भोजन को छू लेते थे। इस पर अनेक हिन्दू उसे अपवित्र मानकर नहीं खाते थे। उन्हें भूखा देखकर वे मुस्लिम पहरेदार बहुत खुश होते थे। सावरकर जी ने हिन्दू कैदियों को समझाया कि राम-नाम में सब अपवित्रताओं को समाप्त करने की शक्ति है। इससे हिन्दू बन्दी श्रीराम का नाम लेकर भोजन करने लगे; पर इससे मुसलमान पहरेदार चिढ़ गये।

एक बार एक पहरेदार ने हिन्दू बन्दी को कहा - काफिर, तेरी चोटी उखाड़ लूँगा। हिन्दू बन्दियों का आत्मविश्वास इतना बढ़ चुका था कि वह यह सुनकर पहरेदार की छाती पर चढ़ गया और दोनों हाथों से उसे इतने मुक्के मारे कि पहरेदार बेहोश हो गया।

इस घटना से भयभीत होकर उन पहरेदारों ने हिन्दू बन्दियों से छेड़छाड़ बन्द कर दी। कारागार में मुसलमान पहरेदार हिन्दू बन्दियों को परेशानकर मुसलमान बना लेते थे। सावरकर जी ने ऐसे सब धर्मान्तरितों को शुद्ध कर फिर से हिन्दू बनाया।

हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रबल समर्थक वीर विनायक दामोदर सावरकर का देहावसान 26 फरवरी, 1966 को हुआ था।


चंद्रशेखर आजाद, जो सदा आजाद रहे

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों में चन्द्रशेखर आजाद का नाम सदा अग्रणी रहेगा। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को ग्राम माबरा (झाबुआ, मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके पूर्वज गाँव बदरका (जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे; पर अकाल के कारण इनके पिता श्री सीताराम तिवारी माबरा में आकर बस गये थे।

बचपन से ही चन्द्रशेखर का मन अंग्रेजों के अत्याचार देखकर सुलगता रहता था। किशोरावस्था में वे भागकर अपनी बुआ के पास बनारस आ गये और संस्कृत विद्यापीठ में पढ़ने लगे।

बनारस में ही वे पहली बार विदेशी सामान बेचने वाली एक दुकान के सामने धरना देते हुए पकड़े गये। थाने में हुई पूछताछ में उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतन्त्रता और घर का पता जेलखाना बताया। इस पर बौखलाकर थानेदार ने इन्हें 15 बेंतों की सजा दी। हर बेंत पर ये ‘भारत माता की जय’ बोलते थे। तब से ही इनका नाम 'आजाद' प्रचलित हो गया।

आगे चलकर आजाद ने सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से देश को आजाद कराने वाले युवकों का एक दल बना लिया। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल, अशफाक, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जयदेव आदि उनके सहयोगी थे।

आजाद तथा उनके सहयोगियों ने नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ से सहारनपुर जाने वाली रेल को काकोरी स्टेशन के पास रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। यह अंग्रेज शासन को खुली चुनौती थी, अतः सरकार ने क्रान्तिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत झोंक दी।

पर आजाद को पकड़ना इतना आसान नहीं था। वे वेष बदलकर क्रान्तिकारियों के संगठन में लगे रहे। ग्वालियर में रहकर इन्होंने गाड़ी चलाना और उसकी मरम्मत करना भी सीखा।

17 दिसम्बर, 1928 को इनकी प्रेरणा से ही भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि ने लाहौर में पुलिस अधीक्षक कार्यालय के ठीक सामने सांडर्स को यमलोक पहुँचा दिया। अब तो पुलिस बौखला गयी; पर क्रान्तिवीर अपने काम में लगे रहे।

कुछ समय बाद क्रान्तिकारियों ने लाहौर विधानभवन में बम फेंका। यद्यपि उसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था। बम फेंककर भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने आत्मसमर्पण कर दिया। उनके वीरतापूर्ण वक्तव्यों सेे जनता में क्रान्तिकारियों के प्रति फैलाये जा रहे भ्रम दूर हुए। दूसरी ओर अनेक क्रान्तिकारी पकड़े भी गये। उनमें से कुछ पुलिस के अत्याचार न सह पाये और मुखबिरी कर बैठे। इससे क्रान्तिकारी आन्दोलन कमजोर पड़ गया।

वह 27 फरवरी, 1931 का दिन था। पुलिस को किसी मुखबिर से समाचार मिला कि आज प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद किसी से मिलने वाले हैं। पुलिस नेे समय गँवाये बिना पार्क को घेर लिया। आजाद एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही उनकी निगाह पुलिस पर पड़ी, वे पिस्तौल निकालकर पेड़ के पीछे छिप गये।

कुछ ही देर में दोनों ओर से गोली चलनेे लगी। इधर चन्द्रशेखर आजाद अकेले थे और उधर कई जवान। जब आजाद की पिस्तौल में एक गोली रह गयी, तो उन्होंने देश की मिट्टी अपने माथे से लगायी और उस अन्तिम गोली को अपनी कनपटी में मार लिया। उनका संकल्प था कि वे आजाद ही जन्मे हैं और मरते दम तक आजाद ही रहेंगे। उन्होंने इस प्रकार अपना संकल्प निभाया और जीते जी पुलिस के हाथ नहीं आये।


गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान

क्रांतिकारी पत्रकार श्री गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 1890 ई0 (आश्विन शुक्ल 14, रविवार, संवत 1947) को प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद श्रीवास्तव के घर में हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे हथगांव (जिला फतेहपुर, उत्तर प्रदेश) के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता मुंशी जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना (मध्य प्रदेश) के गंगवली कस्बे में बस गये।

प्रारम्भिक शिक्षा वहाँ के एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल से लेकर गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई छूट गयी; पर तब तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अन्त तक जारी रहा। विवाह के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर भाईसाहब के पास कानपुर आ गये।

1908 में उन्हें कानपुर के करेंसी दफ्तर में 30 रु0 महीने की नौकरी मिल गयी; पर एक साल बाद अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा हो जाने से उसे छोड़कर विद्यार्थी जी पी.पी.एन.हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। यहाँ भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा। अतः वे प्रयाग आ गये और कर्मयोगी, सरस्वती एवं अभ्युदय नामक पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया; पर यहाँ उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। अतः वे फिर कानपुर लौट गये और 9 नवम्बर, 1913 से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।

‘प्रताप’ समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। पत्र में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भरपूर सामग्री होती थी। अतः दिन-प्रतिदिन ‘प्रताप’ की लोकप्रियता बढ़ने लगी।

दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 23 नवम्बर, 1920 से विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।

इसके बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, वे उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। वे क्रान्तिकारियों के भी समर्थक थे। अतः उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे। क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में शुरू में तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया; पर फिर उनका स्वर बदलने लगे। पाकिस्तान की माँग जोर पकड़ रही थी। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह आदि को फांसी हुई। इसका समाचार फैलने पर अगले दिन कानपुर में लोगों ने विरोध जुलूस निकाले; पर न जाने क्यों इससे मुसलमान भड़क कर दंगा करने लगे। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े।

दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यहाँ तक की उनकी साबुत लाश भी नहीं मिली। केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से उनकी पहचान हुई। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब अन्ध मजहबवाद की बलिवेदी पर भारत माँ के सच्चे सपूत, पत्रकार गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान हुआ।


मंगल पाण्डे का बलिदान

अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी, 1831 को ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म ग्राम सहरपुर (जिला साकेत, उ0प्र0) तथा जन्मतिथि 19 जुलाई, 1927 भी मानते हैं। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे।

उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था।

मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया।

एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर चल दिया। वहां मंगल पांडे सैनिकों से कह रहे थे कि अंग्रेज हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। हमें उसकी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो भी अंग्रेज मेरे सामने आयेगा, मैं उसे मार दूँगा।

सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन ने सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने को कहा; पर तब तक मंगल पांडे की गोली ने उसका सीना छलनी कर दिया। उसकी लाश घोड़े से नीचे आ गिरी। गोली की आवाज सुनकर एक अंग्रेज लेफ्टिनेण्ट वहाँ आ पहुँचा। मंगल पांडे ने उस पर भी गोली चलाई; पर वह बचकर घोड़े से कूद गया। इस पर मंगल पांडे उस पर झपट पड़े और तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। लेफ्टिनेण्ट की सहायता के लिए एक अन्य सार्जेण्ट मेजर आया; पर वह भी मंगल पांडे के हाथों मारा गया।

तब तक चारों ओर शोर मच गया। 34 वीं पल्टन के कर्नल हीलट ने भारतीय सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने का आदेश दिया; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज सैनिकों को बुलाया गया। अब मंगल पांडे चारों ओर से घिर गये। वे समझ गये कि अब बचना असम्भव है। अतः उन्होंने अपनी बन्दूक से स्वयं को ही गोली मार ली; पर उससे वे मरे नहीं, अपितु घायल होकर गिर पड़े। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया।

अब मंगल पांडे पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंग्रेजों को अपने देश का भाग्यविधाता नहीं मानता। देश को आजाद कराना यदि अपराध है, तो मैं हर दण्ड भुगतने को तैयार हूँ।’’

न्यायाधीश ने उन्हें फाँसी की सजा दी और इसके लिए 18 अप्रैल का दिन निर्धारित किया; पर अंग्रेजों ने देश भर में विद्रोह फैलने के डर से घायल अवस्था में ही 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फाँसी दे दी। बैरकपुर छावनी में कोई उन्हंे फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। अतः कोलकाता से चार जल्लाद जबरन बुलाने पड़े।

मंगल पांडे ने क्रान्ति की जो मशाल जलाई, उसने आगे चलकर 1857 के व्यापक स्वाधीनता संग्राम का रूप लिया। यद्यपि भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ; पर उस प्रथम क्रान्तिकारी मंगल पांडे के बलिदान को सदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।


अमर बलिदानी तात्या टोपे

छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरासत को बड़ी सावधानी से सँभाला। अंग्रेजों ने उनका प्रभुत्व समाप्त कर पेशवा बाजीराव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में नजरबन्द कर दिया। इनके दरबारी धर्माध्यक्ष रघुनाथ पाण्डुरंग भी इनके साथ बिठूर आ गये। इन्हीं रघुनाथ जी के आठ पुत्रों में से एक का नाम तात्या टोपे था।

1857 में जब स्वाधीनता की ज्वाला धधकी, तो नाना साहब के साथ तात्या भी इस यज्ञ में कूद पड़े। बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में तात्या ने देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकडि़यों को संगठित किया। कानपुर में अंग्रेज अधिकारी विडनहम तैनात था। तात्या ने अचानक हमला कर कानपुर पर कब्जा कर लिया। यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू तथा लखनऊ की छावनियों से सेना बुला ली। अतः तात्या को कानपुर और कालपी से पीछे हटना पड़ा।

इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में संघर्ष का बिगुल बजा दिया। तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। तात्या दो वर्ष तक सतत अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। चम्बल से नर्मदा के इस पार तक तथा अलवर से झालावाड़ तक तात्या की तलवार अंग्रेजों से लोहा लेती रही। इस युद्ध में तात्या के विश्वस्त साथी एक-एक कर बलिदान होते गये।

अकेले होने के बाद भी वीर तात्या टोपे ने धैर्य और साहस नहीं खोया।
तात्या टोपे केवल सैनिक ही नहीं, एक कुशल योजनाकार भी थे। उन्होंने झालरा पाटन की सारी सेना को अपने पक्ष में कर वहाँ से 15 लाख रुपया तथा 35 तोपें अपने अधिकार में ले लीं।

इससे घबराकर अंग्रेजों ने छह सेनापतियों को एक साथ भेजा; पर तात्या उनकी घेरेबन्दी तोड़कर नागपुर पहुँच गये। अब उनके पास सेना बहुत कम रह गयी थी। नागपुर से वापसी में खरगौन में अंग्रेजों से फिर भिड़न्त हुई। सात अपै्रल, 1859 को किसी के बताने पर पाटन के जंगलों में उन्हें शासन ने दबोच लिया। ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था।

सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा, ‘‘मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया। मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं है। या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें।’’

अन्ततः 17 अप्रैल 1859 को उन्हें एक पेड़ पर फाँसी दे दी गयी। कई इतिहासकारों का मत है कि तात्या कभी पकड़े ही नहीं गये। जिसे फाँसी दी गयी, वह नारायणराव भागवत थे, जो तात्या को बचाने हेतु स्वयं फांसी चढ़ गये। तात्या संन्यासी वेष में कई बार अपने पूर्वजों के स्थान येवला आये।

इतिहासकार श्रीनिवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक ‘तात्या टोपे’ के अनुसार तात्या 1861 में काशी के खर्डेकर परिवार में अपनी चचेरी बहिन दुर्गाबाई के विवाह में आये थे तथा 1862 में अपने पिता के काशी में हुए अंतिम संस्कार में भी उपस्थित थे। तात्या के एक वंशज पराग टोपे की पुस्तक ‘तात्या टोपेज आॅपरेशन रेड लोटस’ के अनुसार कोटा और शिवपुरी के बीच चिप्पा बरोड के युद्ध में एक जनवरी, 1859 को तात्या ने वीरगति प्राप्त की।

अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में यह लिखा है कि कथित फांसी के बाद भी वे रामसिंह, जीलसिंह, रावसिंह जैसे नामों से घूमते मिले हैं। स्पष्ट है कि इस बारे में अभी बहुत शोध की आवश्यकता है।


अमर बलिदानी दामोदर हरि चाफेकर

दामोदर हरि चाफेकर उस बलिदानी परिवार के अग्रज थे, जिसके तीनों पुष्पों ने स्वयं को भारत माँ की अस्मिता की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया। उनका जन्म 25 जून, 1869 को पुणे में प्रख्यात कथावाचक श्री हरि विनायक पन्त के घर में हुआ था। दामोदर के बाद 1873 में बालकृष्ण और 1879 में वासुदेव का जन्म हुआ। तीनों भाई बचपन से ही अपने पिता के साथ भजन कीर्तन में भाग लेते थे।

दामोदर को गायन के साथ काव्यपाठ और व्यायाम का भी बहुत शौक था। उनके घर में लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ नामक समाचार पत्र आता था। उसे पूरे परिवार के साथ-साथ पास पड़ोस के लोग भी पढ़ते थे। तिलक जी को जब गिरफ्तार किया गया, तो दामोदर बहुत रोये। उन्होंने खाना भी नहीं खाया। इस पर उसकी माँ ने कहा कि तिलक जी ने रोना नहीं, लड़ना सिखाया है। दामोदर ने माँ की वह सीख गाँठ बाँध ली।

अब उन्होंने ‘राष्ट्र हितेच्छु मंडल’ के नाम से अपने जैसे युवकों की टोली बना ली। वे सब व्यायाम से स्वयं को सबल बनाने में विश्वास रखते थे। जब उन्हें अदन जेल में वासुदेव बलवन्त फड़के की अमानवीय मृत्यु का समाचार मिला, तो सबने सिंहगढ़ दुर्ग पर जाकर उनके अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प लिया। दामोदर ने शस्त्र संचालन सीखने के लिए सेना में भर्ती होने का प्रयास किया; पर उन्हें भर्ती नहीं किया गया। अब वह अपने पिता की तरह कीर्तन-प्रवचन करने लगे।

एक बार वे मुम्बई गये। वहाँ लोग रानी विक्टोरिया की मूर्ति के सामने हो रही सभा में रानी की प्रशंसा कर रहे थे। दामोदर ने रात में मूर्ति पर कालिख पोत दी और गले में जूतों की माला डाल दी। इससे हड़कम्प मच गया। उन्हीं दिनों पुणे में प्लेग फैल गया। शासन ने मिस्टर रैण्ड को प्लेग कमिश्नर बनाकर वहाँ भेजा। वह प्लेग की जाँच के नाम पर घरों में और जूते समेत पूजागृहों में घुस जाता। माँ-बहनों का अपमान करता। दामोदर एवं मित्रों ने इसका बदला लेने का निश्चय किया। तिलक जी ने उन्हें इसके लिए आशीर्वाद दिया।

22 जून, 1897 को रानी विक्टोरिया का 60वाँ राज्यारोहण दिवस था। शासन की ओर से पूरे देश में इस दिन समारोह मनाये गये। पुणे में भी रात के समय एक क्लब में पार्टी थी। रैण्ड जब वहाँ से लौट रहा था, तो दामोदर हरि चाफेकर तथा उसके मित्रों ने उस पर गोली चला दी। इससे आर्यस्ट नामक अधिकारी वहीं मारा गया। रैण्ड भी बुरी तरह घायल हो गया और तीन जुलाई को अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी।

पूरे पुणे शहर में हाहाकार मच गया; पर वे पुलिस के हाथ न आये। कुछ समय बाद दो द्रविड़ भाइयों के विश्वासघात से दामोदर और फिर बालकृष्ण पकडे़ गये। जिन्होंने विश्वासघात कर उन्हें पकड़वाया था, वासुदेव और रानाडे ने उन्हें गोली से उड़ा दिया। रामा पांडू नामक पुलिसकर्मी ने अत्यधिक उत्साह दिखाया था, उस पर थाने में ही गोली चलाई; पर वह बच गया।

न्याय का नाटक हुआ और 18 अप्रैल, 1898 को दामोदर को फाँसी दे दी गयी। अन्तिम समय में उनके हाथ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित तथा हस्ताक्षरित ग्रन्थ ‘गीता रहस्य’ था। उन्होंने हँसते हुए स्वयं ही फाँसी का फन्दा गले में डाला। आगे चलकर बालकृष्ण, वासुदेव और रानाडे को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया।


क्रांतिवीर सुखदेव

स्वतन्त्रता संग्राम के समय उत्तर भारत में क्रान्तिकारियों की दो त्रिमूर्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हुईं। पहली चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ की थी, जबकि दूसरी भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की थी। इनमें से सुखदेव का जन्म ग्राम नौघरा (जिला लायलपुर, पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान) में 15 मई, 1907 को हुआ था। इनके पिता प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री रामलाल थापर तथा माता श्रीमती रल्ली देई थीं।

सुखदेव के जन्म के दो साल बाद ही पिता का देहान्त हो गया। अतः इनका लालन-पालन चाचा श्री अचिन्तराम थापर ने किया। सुखदेव के जन्म के समय वे जेल में मार्शल लाॅ की सजा भुगत रहे थे। ऐसे क्रान्तिकारी वातावरण में सुखदेव बड़ा हुए।

जब वह तीसरी कक्षा में थे, तो गवर्नर उनके विद्यालय में आये। प्रधानाचार्य के आदेश पर सब छात्रों ने गवर्नर को सैल्यूट दिया; पर सुखदेव ने ऐसा नहीं किया। जब उनसे पूछताछ हुई, तो उन्होंने साफ कह दिया कि मैं किसी अंग्रेज को प्रणाम नहीं करूँगा।

आगे चलकर सुखदेव और भगतसिंह मिलकर लाहौर में क्रान्ति का तानाबाना बुनने लगे। उन्होंने एक कमरा किराये पर ले लिया। वे प्रायः रात में बाहर रहते थे या देर से आते थे। इससे मकान मालिक और पड़ोसियों को सन्देह होता था। इस समस्या के समाधान के लिए सुखदेव अपनी माता जी को वहाँ ले आये। अब यदि कोई पूछता, तो वे कहतीं कि दोनों पी.डब्ल्यू.डी. में काम करते हैं। नगर से बहुत दूर एक सड़क बन रही है। वहाँ दिन-रात काम चल रहा है, इसलिए इन्हें आने में प्रायः देर हो जाती है।

सुखदेव बहुत साहसी थे। लाहौर में जब बम बनाने का काम प्रारम्भ हुआ, तो उसके लिए कच्चा माल फिरोजपुर से वही लाते थे। एक बार माल लाते समय वे सिपाहियों के डिब्बे में चढ़ गये। उन्होंने सुखदेव को बहुत मारा। सुखदेव चुपचाप पिटते रहे; पर कुछ बोले नहीं; क्योंकि उनके थैले में पिस्तौल, कारतूस तथा बम बनाने का सामान था। एक सिपाही ने पूछा कि इस थैले में क्या है ? सुखदेव ने त्वरित बुद्धि का प्रयोग करते हुए हँसकर कहा - दीवान जी, पिस्तौल और कारतूस हैं। सिपाही भी हँस पड़े और बात टल गयी।

जब साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन के समय लाठी प्रहार से घायल होकर लाला लाजपतराय की मृत्यु हुई, तो सांडर्स को मारने वालों में सुखदेव भी थे। उनके हाथ पर ॐ गुदा हुआ था। फरारी के दिनों में एक दिन उन्होंने वहाँ खूब सारा तेजाब लगा लिया। इससे वहाँ गहरे जख्म हो गये; पर फिर भी ॐ पूरी तरह साफ नहीं हुआ। इस पर उन्होंने मोमबत्ती से उस भाग को जला दिया।

पूछने पर उन्होंने मस्ती से कहा कि इससे मेरी पहचान मिट गयी और पकड़े जाने पर यातनाओं से मैं डर तो नहीं जाऊँगा, इसकी परीक्षा भी हो गयी। उन्हें पता लगा कि भेद उगलवाने के लिए पुलिस वाले कई दिन तक खड़ा रखते हैं। अतः उन्होंने खड़े-खड़े सोने का अभ्यास भी कर लिया।

जब भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी घोषित हो गयी, तो जनता ने इसके विरोध में आन्दोलन किया। लोगों की इच्छा थी कि इन्हें फाँसी के बदले कुछ कम सजा दी जाये। जब सुखदेव को यह पता लगा, तो उन्होंने लिखा, ‘‘हमारी सजा को बदल देने से देश का उतना कल्याण नहीं होगा, जितना फाँसी पर चढ़ने से।’’ स्पष्ट है कि उन्होंने बलिदानी बाना पहन लिया था।

23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और राजगुरु के साथ सुखदेव भी हँसते हुए फाँसी के फन्दे पर झूल गये।


स्वदेशी आन्दोलन के प्रवर्तक विपिन चन्द्र पाल
स्वतन्त्रता आन्दोलन में देश भर में प्रसिद्ध हुई लाल, बाल, पाल नामक त्रयी के एक स्तम्भ विपिनचन्द्र पाल का जन्म सात नवम्बर, 1858 को ग्राम पैल (जिला श्रीहट्ट, वर्तमान बांग्लादेश) में श्री रामचन्द्र पाल एवं श्रीमती नारायणी के घर में हुआ था। बचपन में ही इन्हें अपने धर्मप्रेमी पिताजी के मुख से सुनकर संस्कृत श्लोक एवं कृत्तिवास रामायण की कथाएँ याद हो गयी थीं।

विपिनचन्द्र प्रारम्भ से ही खुले विचारों के व्यक्ति थे। 1877 में वे ब्रह्मसमाज की सभाओं में जाने लगे। इससे इनके पिताजी बहुत नाराज हुए; पर विपिनचन्द्र अपने काम में लगे रहे। शिक्षा पूरी कर वे एक विद्यालय में प्रधानाचार्य बन गये। लेखन और पत्रकारिता में रुचि होने के कारण उन्होंने श्रीहट्ट तथा कोलकाता से प्रकाशित होने वाले पत्रों में सम्पादक का कार्य किया। इसके बाद वे लाहौर जाकर ‘ट्रिब्यून’ पत्र में सहसम्पादक बन गये। लाहौर में उनका सम्पर्क पंजाब केसरी लाला लाजपतराय से हुआ। उनके तेजस्वी जीवन व विचारों का विपिनचन्द्र के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा।

विपिनचन्द्र जी एक अच्छे लेखक भी थे। बंगला में उनका एक उपन्यास तथा दो निबन्ध संग्रह उपलब्ध हैं। 1890 में वे कलकत्ता लाइब्रेरी के सचिव बने। अब इसे ‘राष्ट्रीय ग्रन्थागार’ कहते हैं। 1898 में वे इंग्लैण्ड तथा अमरीका के प्रवास पर गये। वहाँ उन्होंने भारतीय धर्म, संस्कृति तथा सभ्यता की विशेषताओं पर कई भाषण दिये। इस प्रवास में उनकी भेंट भगिनी निवेदिता से भी हुई। भारत लौटकर वे पूरी तरह स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयासों में जुट गये।

अब उन्होंने ‘न्यू इंडिया’ नामक साप्ताहिक अंग्रेजी पत्र का सम्पादन किया। इनका जोर आन्दोलन के साथ-साथ श्रेष्ठ व्यक्तियों के निर्माण पर भी रहता था। कांग्रेस की नीतियों से उनका भारी मतभेद था। वे स्वतन्त्रता के लिए अंग्रेजों के आगे हाथ फैलाना या गिड़गिड़ाना उचित नहीं मानते थे। वे उसे अपना अधिकार समझते थे तथा अंग्रेजों से छीनने में विश्वास करते थे। इस कारण शीघ्र ही वे बंगाल की क्रान्तिकारी गतिविधियों के केन्द्र बन गये।

1906 में अंग्रेजों ने षड्यन्त्र करते हुए बंगाल को हिन्दू तथा मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर बाँट दिया। विपिनचन्द्र पाल के तन-मन में इससे आग लग गयी। वे समझ गये कि आगे चलकर इसी प्रकार अंगे्रज पूरे देश को दो भागों में बाँट देंगे। अतः उन्होंने इसके विरोध में उग्र आन्दोलन चलाया।

स्वदेशी आन्दोलन का जन्म बंग-भंग की कोख से ही हुआ। पंजाब में लाला लाजपतराय तथा महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस आग को पूरे देश में फैला दिया। विपिनचन्द्र ने जनता में जागरूकता लाने के लिए 1906 में ‘वन्देमातरम्’ नामक दैनिक अंग्रेजी अखबार भी निकाला।

धीरे-धीरे उनके तथा अन्य देशभक्तों के प्रयास रंग लाये और 1911 में अंग्रेजों को बंग-भंग वापस लेना पड़ा। इस दौरान उनका कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो गया। अतः उन्होंने नये राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का गठनकर उसके प्रसार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया।

वे अद्भुत वक्तृत्व कला के धनी थे। अतः उन्हें सुनने के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। एक बार अंग्रेजों ने श्री अरविन्द के विरुद्ध एक मुकदमे में गवाही के लिए विपिनचन्द्र को बुलाया; पर उन्होंने गवाही नहीं दी। अतः उन्हें भी छह माह के लिए जेल में ठूँस दिया गया।

आजीवन क्रान्ति की मशाल जलाये रखने वाले इस महान देशभक्त का निधन आकस्मिक रूप से 20 मई, 1932 को हो गया


क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्रत्येक देशवासी के मन में भारत माता की दासता की बेडि़याँ काटने की उत्कट अभिलाषा जोर मार रही थी। कुछ लोग शान्ति के मार्ग से इन्हें तोड़ना चाहते थे, तो कुछ जैसे को तैसा वाले मार्ग को अपना कर बम-गोली से अंग्रेजों को सदा के लिए सात समुन्दर पार भगाना चाहते थे। ऐसे समय में बंगभूमि ने अनेक सपूतों को जन्म दिया, जिनकी एक ही चाह और एक ही राह थी - भारत माता की पराधीनता से मुक्ति।

25 मई, 1885 को बंगाल के चन्द्रनगर में रासबिहारी बोस का जन्म हुआ। वे बचपन से ही क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये थे। हाईस्कूल उत्तीर्ण करते ही वन विभाग में उनकी नौकरी लग गयी। यहाँ रहकर उन्हें अपने विचारों को क्रियान्वित करने का अच्छा अवसर मिला, चूँकि सघन वनों में बम, गोली का परीक्षण करने पर किसी को शक नहीं होता था।

रासबिहारी बोस का सम्पर्क दिल्ली, लाहौर और पटना से लेकर विदेश में स्वाधीनता की अलख जगा रहे क्रान्तिवीरों तक से था। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभा यात्रा निकलने वाली थी। रासबिहारी बोस ने योजना बनाई कि वायसराय की सवारी पर बम फंेककर उसे सदा के लिए समाप्त कर दिया जाये। इससे अंग्रेजी शासन में जहाँ भय पैदा होगा, वहाँ भारतीयों के मन में उत्साह का संचार होगा।

योजनानुसार रासबिहारी बोस तथा बलराज ने चाँदनी चौक से यात्रा गुजरते समय एक मकान की दूसरी मंजिल से बम फेंका; पर दुर्भाग्यवश वायसराय को कुछ चोट ही आयी, वह मरा नहीं। रासबिहारी बोस फरार हो गये। पूरे देश में उनकी तलाश जारी हो गयी। ऐसे में उन्होंने अपने साथियों की सलाह पर विदेश जाकर देशभक्तों को संगठित करने की योजना बनाई। उसी समय विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जापान जा रहे थे। वे भी उनके साथ उनके सचिव पी.एन.टैगोर के नाम से जापान चले गये।

पर जापान में वे विदेशी नागरिक थे। जापान और अंग्रेजों के समझौते के अनुसार पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर भारत भेज सकती थी। अतः कुछ मित्रों के आग्रह पर उन्होंने अपने शरणदाता सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से उसके आग्रह पर विवाह कर लिया। इससे उन्हें जापान की नागरिकता मिल गयी। यहाँ तोसिको का त्याग भी अतुलनीय है। उसने रासबिहारी के मानव कवच की भूमिका निभाई। जापान निवास के सात साल पूरे होने पर उन्हें स्वतन्त्र नागरिकता मिल गयी। अब वे कहीं भी जा सकते थे।

उन्होंने इसका लाभ उठाकर दक्षिण एशिया के कई देशों में प्रवास कर वहाँ रह रहे भारतीयों को संगठित कर अस्त्र-शस्त्र भारत के क्रान्तिकारियों के पास भेजे। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध की आग भड़क रही थी। रासबिहारी बोस ने भारत की स्वतन्त्रता हेतु इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए जापान के साथ आजाद हिन्द की सरकार के सहयोग की घोषणा कर दी। उन्होंने जर्मनी से सुभाषचन्द्र बोस को बुलाकर ‘सिंगापुर मार्च’ किया तथा 1941 में उन्हें आजाद हिन्द की सरकार का प्रमुख तथा फौज का प्रधान सेनापति घोषित किया।

देश की स्वतन्त्रता के लिए विदेशों में अलख जगाते और संघर्ष करते हुए रासबिहारी बोस का शरीर थक गया। उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया था। 21 जनवरी, 1945 को वे भारत माता को स्वतन्त्र देखने की अपूर्ण अभिलाषा लिये हुए ही चिरनिद्रा में सो गये।

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