हमारे समाज सुधारक

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद प्रसिद्ध है। भारतेंदु हिन्दी साहित्य में नवयुग के निर्माणकर्ता थे। हिन्दी में उन्होंने जिस साहित्यिक परम्परा की नींव डाली, आज का साहित्यिक भवन उसी पर टिका हुआ है। इन्होंने अपनी प्रतिभा का एक -एक अंश हिन्दी को अर्पित कर दिया। हिन्दी को राजदरबारों से निकालकर इन्होंने जनजीवन के निकट लाने का सराहनीय प्रयास किया। भारतेंदु का जन्म सन १८५० में काशी के एक धनी वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता सेठ गोपालचंद्र 'गिरधरदास' उपनाम से कविता किया करते थे। दुर्भाग्य से बचपन में ही माता पिता के देवासान के कारण भारतेंदु जी को व्वास्थित रूप से पढने -लिखने का अवसर नही मिल सका । किंतु उन्होंने अपने स्वाध्याय से हिन्दी,उर्दू,मराठी ,गुजराती,बंगला ,अंग्रेजी तथा संस्कृत आदि भाषाओँ का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।

१८ बर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'कवि वचन सुधा' नामक पत्र निकाला ,जिसमे तत्कालीन अच्छे विद्वानों के लेख निकलते थे। आपने कई स्कूल ,क्लब ,पुस्तकालय तथा नाट्यशालाओं आदि की स्थापना की और अपना बहुत सा धन व्यय करके उसे चलाते रहे । धन को इस प्रकार पानी की तरह बहाने से जीवन के अन्तिम समय इन्हे बहुत कष्ट उठाना पड़ा। अंत में क्षय रोग से ग्रस्त होने के कारण ३५ बर्ष की अल्पायु में ही सन १८८५ में इनका देहांत हो गया।

भारतेंदु ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। जीवन के मात्र ३५ बर्षो में आपने लगभग १५० से अधिक ग्रंथो की रचना की । भारतेंदु जी सबसे बड़ी विशेषता यह थी की ये एक साथ कवि,नाटक कार ,पत्रकार एवं निबंधकार थे। हिन्दी के अनेक नवीन विधाओं के जन्मदाता के रूप में आप प्रसिद्ध है। कविता ,नाटक और निबंध के द्वारा इन्होने हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की ,साथ ही साथ अनेक कविओं और लेखकों को आर्थिक सहायता देते रहकर इन्होने हिन्दी साहित्य के विभिन्न अंगों का विकास किया। आर्थिक क्षति उठाते हुए इन्होने अनेक पत्रिकाएं निकाली और हर्प्रकार से हिन्दी को समृद्ध करने का प्रयत्न किया। उनकी इसी सेवा के प्रभावित होकर हिन्दी जगत ने उन्हें भारतेंदु की उपाधि से विभूषित किया और उनके नाम से उनका युग चला । भारतेंदु के साहित्य में देश प्रेम,सामाजिक दुरवस्था और कुप्रथाओं का विरोध ,धार्मिक रूढियों और अंधविश्वासों का खंडन ,स्त्री-शिक्षा और स्वतंत्रता आदि सामाजिक विषयों का समावेश हिन्दी साहित्य में पहली बार हुआ । आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने भारतेंदु के विषय में लिखा है - 'अपनी सर्वतोमुखीप्रतिभा के बल से एक ओर वे पद्माकर और द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे,दूसरी ओर से बंगदेश के माईकेलऔर हेमचन्द्र के श्रेणी में। एक ओर तो राधा -कृष्ण की भक्ति में झूमते हुए नई भक्तमाल गूंथते दिखायी देते थे दूसरीओर मंदिरों में अधिकारियों और टिकाधारी भक्तों के चरित्र की हँसी उडाते और स्त्री शिक्षा ,समाज सुधार आदि परव्याख्यान देते पाये जाते थे । प्राचीन और नवीन का यही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु काल की कला का विशेष माधुर्य है।प्राचीन और नवीन के उस संधि काल में जैसी शीतल छाया का संचार अपेक्षित था,वैसी ही शीतल कला के साथ भारतेंदुका उदय हुआ ,इसमे संदेह नही।'

भारतेंदु ने कविता क्षेत्र में ब्रजभाषा का प्रयोग किया और गद्य क्षेत्र में खड़ी का व्यवहार किया। खड़ी बोली गद्य का विकास इस युग की एक महत्वपूर्ण घटना है। भारतेंदु जी ने अनेक नवीन गद्य रूपों का विकास किया ,जिनका माध्यम खड़ी बोली थी। ये नये रूप थे - पत्रकारिता ,उपन्यास ,कहानी,नाटक,आलोचना और निबंध आदि। इन रूपों का प्रचार और विकास हिन्दी में पहली बार हुआ। उन्होंने आधुनिक युग की नई चेतना को गहराई से परखकर साहित्य की विभिन्न विधाओं में व्यक्त करने का अद्भुत प्रयास किया । अपने युग की वस्तु-स्थिति समझकर ,उसके समाजिक अंतविरोधों को पहचानते हुए ,राष्ट्रीय नवजागरण की आवश्यकता महसूस करते हुए एक जागृत विवेक के साथ हिन्दी साहित्य को जन -जीवन के साथ जोड़ा। उनकी रचनाओं के कुछ उदाहरण यहाँ दिए जा रहे है -

निज भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न उर को सुल । ।
पढ़ो-लिखो कोइ लाख विधि भाषा बहुत प्रकार ।
पै जब कछु सोचिहो निज भाषा अनुसार।
निज भाषा निज धरम निज मान ,करम योंहार 

सबे बढ़ावहु वेगि मिलि,कहत पुकार -पुकार ।

****************************
भीतर भीतर सब रस चूसे
हँसी-हँसी के तन मन धन लुटे ।

जाहिर बातन में अति तेज क्यों सखी सज्जन ,नही अंग्रेज ।
******************************
अंग्रेज राज सुख साज सज्यो है भारी,

पै धन विदेश चलि जात इहे अति ख्वारी ।





ईश्वरचन्द्र विद्यासागर 

आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले संवत् १८६७ में बंगाल प्रान्त में कलकत्ता के पास वीरसिंह नामक ग्राम में आपका जन्म हुआ। आपके पिता का नाम ठाकुरदास और माता का नाम भगवती देवी था। आपके पिता बहुत निर्धन थे। ईश्वरचन्द्र के जन्म के समय वे कलकत्ता में नौकरी करते थे और केवल आठ रुपये मासिक वेतन पाते थे।

जब आपको पढ़ने के लिए गाँव के विद्यालय में भेजा गया, तब आप पाँच वर्ष के थे। नौ वर्ष की आयु में आप अपने पिता के पास कलकत्ता में पढ़ने के लिए चले गये। भर- पेट भोजन न मिलने पर भी आप इतना परिश्रम करते थे कि हर कक्षा में सदा प्रथम रहा करते थे। इसी कारण से आपको बचपन से ही छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हो गई। जो धन आपको छात्रवृत्ति से मिलता था, उससे आप दूसरे गरीब छात्रों की सदा सहायता करते रहे। उनके रोगी होने पर उन्हें औषधि भी अपने पास से देते थे। स्वयं तो घर के कते हुए सूत से बने हुए कपड़े पहनते थे, परन्तु दूसरे गरीब छात्रों को अपने से अच्छे कपड़े खरीद देते थे। बालकों की कौन कहे, बड़ों में भी इतना त्याग नहीं मिलता। दूसरों के लिएईश्वरचन्द्र जी सदा अपने कष्टों को भूल जाया करते। एक ओर पेट भर भोजन न मिलना और दूसरी ओर अपने और अपने पिता के लिए भोजन बनाना और जिस पर सदा गरीब बालकों की सहायता करना और फिर अपनी कक्षा में सदा प्रथम आना।
इतना अधिक परिश्रम करने के कारण आप कई बार रोगी हो जाते थे, परन्तु अपनी पढ़ाई में कभी ढील न आने देते। आप कहा करते थे कि माता- पिता की पूजा छोड़कर या उनके दुःखों और कष्टों पर ध्यान न देकर भगवान् की पूजा करने से कोई लाभ नहीं होता। जिन्होंने स्वयं दुःख और कष्ट सहकर हमें पाला और पोसा है, वे ही हमारे परम देवता है। आप जब तक जिये, अपने माता- पिता की इच्छा के विरुद्ध कभी कोई काम नहीं किया। इक्कीस वर्ष की आयु में आपकोविद्यासागरकी उपाधि मिली और संस्कृत के महान् पंडित बनकर निकले।

आपने सबसे पहले तीस रुपये मासिक वेतन पर फोर्ट विलियम कालेज में नौकरी की। जिस दिन से आपने नौकरी शुरू की, पिताजी को नौकरी छुड़वा दी और उन्हें गाँव भिजवा दिया।
आपके छोटे भाई का विवाह होना था, माता ने बुला भेजा। आपको छुट्टी नहीं मिली। आपनेप्रिंसिपल महोदय से साफ- साफ कह दिया कि या तो छुट्टी दीजिए या त्याग- पत्र लीजिए। आपकी मातृ- भक्ति देखकर प्रिंसिपल महोदय ने प्रसन्न होकर छुट्टी दे दी। आप उसी समय एक नौकर को साथ लेकर चल दिये।
बरसात के कारण रास्ता खराब हो गया था। आप बहुत तेज चलते थे और थकते नहीं थे, पर नौकर नहीं चल सका, इसलिए उसे लौटा दिया। दूसरे दिन ही विवाह था। आप बड़ी तेज चाल से चले और दामोदर नदी के तट पर पहुँचे। देखा नाव दूर थी, आने में देर लगेगी। आप एकदम नदी में कूद पड़े और बड़ी कठिनाई से पार पहुँचे। बिना कुछ खाए- पिए आप सनसनाते हुए घर की ओर चल दिए। मार्ग में एक और नदी मिली, उसे भी तैरकर पार किया। चलते- चलते शाम हो गई, चोरों का बड़ा डर था। परन्तु आपको तो माता के चरण- कमलों में पहँचना था। आप अपनी धुन में चलते ही गये और आधी रात को घर पहुँचे। बरात जा चुकी थी। पर ज्यों ही पुत्र की आवाज सुनी, माँ प्रसन्नता से खिल उठी। माता की आज्ञा का पालन करके ही आपने अन्न- जल ग्रहण किया।

कुछ समय बाद आपका वेतन डेढ़ सौ रुपया मासिक हो गया। आप गरीब रोगियों कोहोम्योपैथिक औषधियाँ बाँटा करते थे। एक बार एक मेहतर रोता हुआ आपके पास आया और बोला मेहतरानी को हैजा हो गया है, आप कृपा करें। आप उसके घर गये। दिन भर वहीं रहकर इलाज किया और सायंकाल रोगी को ठीक करके ही घर आये। जिस तरह सूर्य, चाँद, वर्षा और वायु ऊँच- नीच का विचार किए बिना सबको एक- सा फल देते है, उसी तरह ईश्वर चन्द्र विद्यासागर भी सबके साथ एक- सा बर्ताव करते थे।
कुछ समय बाद आपका वेतन पाँच सौ रुपया मासिक हो गया। परन्तु नौकरी में आत्म- सम्मान को बहुत ठेस लगती थी, इसलिए नौकरी छोड़कर देश- सेवा में लग गये। आप कहते थे- दूसरे के पैर चाटते- चाटते यह जाति भीरु बन गई है। जब लोग नौकरी करना पसन्द नहीं करेंगे, तभी देश का कल्याण होगा। अब आप पुस्तकें लिखने लगे और अपना प्रेस खोलकर पुस्तकेंछपाकर बेचने लगे।

एक बार आप रेल में सवार होकर एक स्थान पर भाषण देने जा रहे थे। एक छोटे- से स्टेशन पर आपको उतरना था। ज्यों ही गाड़ी उस स्टेशन पर पहुँची, आपने देखा कि नवयुवक कुली- कुलीपुकार रहा है। वहाँ कोई कुली था ही नहीं। आप नवयुवक के पास गए और उसका सामान अपने सिर पर उठा लिया और उसके घर पहुँचा दिया। वह आपको कुछ पैसे देने लगा। आपने कहा- मुझे भी यहीं आना था, तुम्हारा सामान उठा लिया तो क्या हुआ!
शाम के समय ईश्वरचन्द्र जी का भाषण हुआ, जिसे सुनने नवयुवक भी गया। उसने आपको झट पहचान लिया और पाँव में गिरकर फूट- फूटकर रोने लगा। आपने उसे प्रेम से गले लगाया और समझाया कि सदा अपना काम अपने हाथ से किया करो।

एक बार प्रातःकाल आप घूमने जा रहे थे। आपने देखा कि एक आदमी रोता हुआ जा रहा है। आप उसके पास गये और प्रेम से उसके दुःख का कारण पूछा। इनको सादी वेश- भूषा में देखकर वह बोला कि मैं बड़े- बड़े धनवानों के पास गया, पर किसी ने मेरी सहायता न की, आप क्या कर सकेंगे?ईश्वरचन्द्र जी के बहुत विनय करने पर वह बोला- भाई! मेरे बाप- दादों की सम्पत्ति केवल एक घर ही है, वह आज नीलाम होगा, अब हम लोग कहाँ रहेंगे? आपने उसका पता पूछ लिया।
अगले दिन आप कचहरी में गए और उसके नाम तेईस सौ रुपया जमा करा आए। उधर वह आदमी दिन- भर कचहरी वालों की राह देखता रहा। जब कोई न आया तो घबराकर वह कचहरी में गया। पता लगा कि कोई सज्जन तेईस सौ रुपया जमा कर गये हैं। वह सोचने लगा कि हो न हो, यह काम उन्हीं सज्जन का है, जो मुझे प्रातःकाल मिले थे। वह आपको ढूँढ़ने लगा।

एक दिन प्रातःकाल वायु- सेवन को जाते समय उसने आपको पहचान ही लिया और दोनों हाथ जोड़कर बोला- आपने मुझे बचा लिय है, मेरा बड़ा उपकार किया है। इस पर आपने उत्तर दिया -तुम्हें उपकारी की भलाई का बदला चुकाना चाहिए, इसलिए मैं तुमसे यह चाहता हूँ कि इस बात को किसी से भी मत कहना। वह आपका त्याग देखकर हैरान रह गया।

बड़े- बड़े लॉट और गवर्नर आपके विचारें का बड़ा आदर करते थे। बड़े- बड़े अंग्रेज पदाधिकारियों को आप सदा अपनी वेश- भूषा में ही मिलते। आप सदा चादर और खड़ाऊँ पहनते। आपने बंगाल में संस्कृत भाषा का बहुत प्रचार किया, सैकड़ों पाठशालाएँ खुलवाईं और उन्हें सरकारी सहायता दिलाई। आप सारी आयुभर विधवा- विवाह और कन्याओं में शिक्षा- प्रचार के लिए लड़ते रहे।

ये हैं, उस महापुरुष के जीवन की कुछ घटनाएँ जो एक निर्धन परिवार में जन्में और जब तक जिये दूसरों के लिए जिये। आप सदा कठिनाई में रहकर भी दुखियों की सहायता करते रहे।

No comments:

Post a Comment