संघ नीव में विसर्जित

संघ संस्थापक डा. हेडगेवार


विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आज कौन नहीं जानता ? भारत के कोने-कोने में इसकी शाखाएँ हैं। विश्व में जिस देश में भी हिन्दू रहते हैं, वहाँ किसी न किसी रूप में संघ का काम है। संघ के निर्माता डा. केशवराव हेडगेवार का जन्म एक अपै्रल, 1889 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि. सम्वत् 1946) को नागपुर में हुआ था। इनके पिता श्री बलिराम हेडगेवार तथा माता श्रीमती रेवतीवाई थीं।

केशव जन्मजात देशभक्त थे। बचपन से ही उन्हें नगर में घूमते  हुए अंग्रेज सैनिक, सीताबर्डी के किले पर फहराता अंग्रेजों का झण्डा यूनियन जैक तथा विद्यालय में गाया जाने वाला गीत ‘गाॅड सेव दि किंग’ बहुत बुरा लगता था। उन्होंने एक बार सुरंग खोदकर उस झंडे को उतारने की योजना भी बनाई; पर बालपन की यह योजना सफल नहीं हो पाई। 

वे सोचते थे कि इतने बड़े देश पर पहले मुगलों ने और फिर सात समुन्दर पार से आये अंग्रेजों ने अधिकार कैसे कर लिया ? वे अपने अध्यापकों और अन्य बड़े लोगों से बार-बार यह प्रश्न पूछा करते थे। बहुत दिनों बाद उनकी समझ में यह आया कि भारत के रहने वाले हिन्दू असंगठित हैं। वे जाति, प्रान्त, भाषा, वर्ग, वर्ण आदि के नाम पर तो एकत्र हो जाते हैं; पर हिन्दू के नाम पर नहीं। भारत के राजाओं और जमीदारों में अपने वंश तथा राज्य का दुराभिमान तो है; पर देश का अभिमान नहीं। इसी कारण विदेशी आकर भारत को लूटते रहे और हम देखते रहे। यह सब सोचकर केशवराव ने स्वयं इस दिशा में कुछ काम करने का विचार किया।

उन दिनों देश की आजादी के लिए सब लोग संघर्षरत थे। स्वाधीनता के प्रेमी केशवराव भी उसमें कूद पड़े। उन्होंने कोलकाता में मैडिकल की पढ़ाई करते समय क्रान्तिकारियों के साथ और वहाँ से नागपुर लौटकर कांग्रेस के साथ काम किया। इसके बाद भी उनके मन को शान्ति नहीं मिली। 

सब विषयों पर खूब चिन्तन और मनन कर उन्होंने नागपुर में 1925 की विजयादशमी पर हिन्दुओं को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। गृहस्थी के बन्धन में न पड़ते हुए उन्होंने पूरा समय इस हेतु ही समर्पित कर दिया। यद्यपि स्वाधीनता आंदोलन में उनकी सक्रियता बनी रही तथा 1930 में जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर वे एक वर्ष अकोला जेल में रहे।

उन दिनों प्रायः सभी संगठन धरने, प्रदर्शन, जुलूस, वार्षिकोत्सव जैसे कार्यक्रम करते थे; पर डा. हेडगेवार ने दैनिक शाखा नामक नई पद्धति का आविष्कार किया। शाखा में स्वयंसेवक प्रतिदिन एक घंटे के लिए एकत्र होते हैं। वे अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार कुछ खेलकूद और व्यायाम करते हैं। फिर देशभक्ति के गीत गाकर महापुरुषों की कथाएं सुनते और सुनाते हैं। अन्त में भारतमाता की प्रार्थना के साथ उस दिन की शाखा समाप्त होती है।

प्रारम्भ में लोगों ने इस शाखा पद्धति की हँसी उड़ायी; पर डा. हेडगेवार निर्विकार भाव से अपने काम में लगे रहे। उन्होंने बड़ों की बजाय छोटे बच्चों में काम प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे शाखाओं का विस्तार पहले महाराष्ट्र और फिर पूरे भारत में हो गया। अब डा. जी ने पूरे देश में प्रवास प्रारम्भ कर दिया। हर स्थान पर देशभक्त नागरिक और उत्साही युवक संघ से जुड़ने लगे।

डा. हेडगेवार अथक परिश्रम करते थे। इसका दुष्प्रभाव उनके शरीर पर दिखायी देने लगा। अतः उन्होंने सब कार्यकर्ताओं से परामर्श कर श्री माधवराव गोलवलकर (श्री गुरुजी) को नया सरसंघचालक नियुक्त किया। 20 जून को उनकी रीढ़ की हड्डी का आॅपरेशन (लम्बर पंक्चर) किया गया; पर उससे भी बात नहीं बनी और अगले दिन 21 जून, 1940 को उन्होंने देह त्याग दी।

तपस्वी जीवन श्री गुरुजी


संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने देहान्त से पूर्व जिनके समर्थ कन्धों पर संघ का भार सौंपा, वे थे श्री माधवराव गोलवलकर, जिन्हें सब प्रेम से श्री गुरुजी कहकर पुकारते हैं। माधव का जन्म 19 फरवरी, 1906 (विजया एकादशी) को नागपुर में अपने मामा के घर हुआ था। उनके पिता श्री सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि.मी. दूर रामटेक में अध्यापक थे।

माधव बचपन से ही अत्यधिक मेधावी छात्र थे। उन्होंने सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। कक्षा में हर प्रश्न का उत्तर वे सबसे पहले दे देते थे। अतः उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि जब कोई अन्य छात्र उत्तर नहीं दे पायेगा, तब ही वह बोलंेगे। एक बार उनके पास की कक्षा में गणित के एक प्रश्न का उत्तर जब किसी छात्र और अध्यापक को भी नहीं सूझा, तब माधव को बुलाकर वह प्रश्न हल किया गया।

वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकंे भी खूब पढ़ते थे। नागपुर के हिस्लाप क्रिश्चियन कॉलिज में प्रधानाचार्य श्री गार्डिनर बाइबिल पढ़ाते थे। एक बार माधव ने उन्हें ही गलत अध्याय का उद्धरण देने पर टोक दिया। जब बाइबिल मँगाकर देखी गयी, तो माधव की बात ठीक थी। इसके अतिरिक्त हॉकी व टेनिस का खेल तथा सितार एवं बाँसुरीवादन भी माधव के प्रिय विषय थे।

उच्च शिक्षा के लिए काशी जाने पर उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे नियमित रूप से शाखा पर जाने लगे। जब डा. हेडगेवार काशी आये, तो उनसे वार्तालाप में माधव का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। एम-एस.सी. करने के बाद वे शोधकार्य के लिए मद्रास गये; पर वहाँ का मौसम अनुकूल न आने के कारण वे काशी विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गये। 

उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर तो यही नाम उनकी पहचान बन गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी भी उनसे बहुत प्रेम करते थे। कुछ समय काशी रहकर वे नागपुर आ गये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन दिनों उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये। वहाँ उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द जी से दीक्षा ली। 

स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये। उनकी योग्यता देखकर डा0 हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झांेक दी। 

1947 में देश आजाद हुआ; पर उसे विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा। 1948 में गांधी जी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। श्री गुरुजी को जेल में डाल दिया गया; पर उन्होंने धैर्य से सब समस्याओं को झेला और संघ तथा देश को सही दिशा दी। इससे सब ओर उनकी ख्याति फैल गयी। संघ-कार्य भी देश के हर जिले में पहुँच गया।

श्री गुरुजी का धर्मग्रन्थों एवं हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया। 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये। शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ; पर पूरी तरह नहीं। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर शरीर का अपना कुछ धर्म होता है। उसे निभाते हुए श्री गुरुजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया।

कर्मठ कार्यकर्ता बालासाहब देवरस


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति के निर्माण एवं विकास में जिनकी प्रमुख भूमिका रही है, उन श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस का जन्म 11 दिसम्बर, 1915 को नागपुर में हुआ था। वे बालासाहब के नाम से अधिक परिचित हैं। वे ही आगे चलकर संघ के तृतीय सरसंघचालक बने।

बालासाहब ने 1927 में शाखा जाना शुरू किया। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा0 हेडगेवार से बढ़ता गया। उन्हें मोहिते के बाड़े में लगने वाली सायं शाखा के ‘कुश पथक’ में शामिल किया गया। इसमें विशेष प्रतिभावान छात्रों को ही रखा जाता था। बालासाहब खेल में बहुत निपुण थे। कबड्डी में उन्हें विशेष मजा आता था; पर वे सदा प्रथम श्रेणी पाकर उत्तीर्ण भी होते थे।

बालासाहब देवरस बचपन से ही खुले विचारों के थे। वे कुरीतियों तथा कालबाह्य हो चुकी परम्पराओं के घोर विरोधी थे। उनके घर पर उनके सभी जातियों के मित्र आते थे। वे सब एक साथ खाते-पीते थे। प्रारम्भ में उनकी माताजी ने इस पर आपत्ति की; पर बालासाहब के आग्रह पर वे मान गयीं।

कानून की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने नागपुर के ‘अनाथ विद्यार्थी वसतिगृह’ में दो वर्ष अध्यापन किया। इन दिनों वे नागपुर के नगर कार्यवाह रहे। 1939 में वे प्रचारक बने, तो उन्हें कोलकाता भेजा गया; पर 1940 में डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद उन्हें वापस नागपुर बुला लिया गया। 1948 में जब गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह के संचालन तथा फिर समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों से सम्पर्क कर उनके माध्यम से प्रतिबन्ध निरस्त कराने में बालासाहब की प्रमुख भूमिका रही।

1940 के बाद लगभग 30-32 साल तक उनकी गतिविधियों का केन्द्र मुख्यतः नागपुर ही रहा। इस दौरान उन्होंने नागपुर के काम को आदर्श रूप में खड़ा किया। देश भर के संघ शिक्षा वर्गों में नागपुर से शिक्षक जाते थे। नागपुर से निकले प्रचारकों ने देश के हर प्रान्त में जाकर संघ कार्य खड़ा किया।

1965 में वे सरकार्यवाह बने। शाखा पर होने वाले गणगीत, प्रश्नोत्तर आदि उन्होंने ही शुरू कराये। संघ के कार्यक्रमों में डा0 हेडगेवार तथा श्री गुरुजी के चित्र लगते हैं। बालासाहब के सरसंघचालक बनने पर कुछ लोग उनका चित्र भी लगाने लगे; पर उन्होंने इसे रोक दिया। यह उनकी प्रसिद्धि से दूर रहने की वृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण है।

1973 में श्री गुरुजी के देहान्त के बाद वे सरसंघचालक बने। 1975 में संघ पर लगे प्रतिबन्ध का सामना उन्होंने धैर्य से किया। वे आपातकाल के पूरे समय पुणे की जेल में रहे; पर सत्याग्रह और फिर चुनाव के माध्यम से देश को इन्दिरा गांधी की तानाशाही से मुक्त कराने की इस चुनौती में संघ सफल हुआ। मधुमेह रोग के बावजूद 1994 तक उन्होंने यह दायित्व निभाया।

इस दौरान उन्होंने संघ कार्य में अनेक नये आयाम जोड़े। इनमें सबसे महत्वपूर्ण निर्धन बस्तियों में चलने वाले सेवा के कार्य हैं। इससे वहाँ चल रही धर्मान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगी। स्वयंसेवकों द्वारा प्रान्तीय स्तर पर अनेक संगठनों की स्थापना की गयी थी। बालासाहब ने वरिष्ठ प्रचारक देकर उन सबको अखिल भारतीय रूप दे दिया। मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद एकात्मता यात्रा तथा फिर श्रीराम मंदिर आंदोलन के दौरान हिन्दू शक्ति का जो भव्य रूप प्रकट हुआ, उसमें इन सब संगठनों के काम और प्रभाव की व्यापक भूमिका है।

जब उनका शरीर प्रवास योग्य नहीं रहा, तो उन्होंने प्रमुख कार्यकर्ताओं से परामर्श कर यह दायित्व मा0 रज्जू भैया को सौंप दिया। 17 जून, 1996 को उन्होंने अन्तिम श्वास ली। उनकी इच्छानुसार उनका दाहसंस्कार रेशीमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के शमशान घाट में किया गया।
प्रो0 राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी, 1922 को ग्राम बनैल (जिला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न एवं शिक्षित परिवार में हुआ था। उनके पिता कुँवर बलबीर सिंह  अंग्रेज शासन में पहली बार बने भारतीय मुख्य अभियन्ता थे। इससे पूर्व इस पद पर सदा अंग्रेज ही नियुक्त होते थे। राजेन्द्र सिंह को घर में सब प्यार से रज्जू कहते थे। आगे चलकर उनका यही नाम सर्वत्र लोकप्रिय हुआ।

रज्जू भैया बचपन से ही बहुत मेधावी थे। उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जायें। इसीलिए उन्हें पढ़ने के लिए प्रयाग भेजा गया; पर रज्जू भैया को अंग्रेजों की गुलामी पसन्द नहीं थी। उन्होंने प्रथम श्रेणी में एम-एस.सी. उत्तीर्ण की और फिर वहीं भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक हो गये। 

उनकी एम-एस.सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा0 सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया; पर रज्जू भैया के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था।

प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। 1943 में रज्जू भैया ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे। 

प्राध्यापक रहते हुए रज्जू भैया अब संघ कार्य के लिए अब पूरे उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे।

रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे। 1966 में उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरा समय संघ को ही देने लगे। 

अब उन पर उत्तर प्रदेश के साथ बिहार का काम भी आ गया। वे एक अच्छे गायक भी थे। संघ शिक्षा वर्ग की गीत कक्षाओं में आकर गीत सीखने और सिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। सरल उदाहरणों से परिपूर्ण उनके बौद्धिक ऐसे होते थे, मानो कोई अध्यापक कक्षा ले रहा हो।

उनकी योग्यता के कारण उनका कार्यक्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया। आपातकाल के समय भूमिगत संघर्ष को चलाये रखने में रज्जू भैया की बहुत बड़ी भूमिका थी। उन्होंने प्रोफेसर गौरव कुमार के छद्म नाम से देश भर में प्रवास किया। जेल में जाकर विपक्षी नेताओं से भेंट की और उन्हें एक मंच पर आकर चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। इसी से इन्दिरा गांधी की तानाशाही का अन्त हुआ। 

1977 में रज्जू भैया सह सरकार्यवाह, 1978 में सरकार्यवाह और 1994 में सरसंघचालक बने। उन्होंने देश भर में प्रवास कर स्वयंसेवकों को कार्य विस्तार की प्रेरणा दी। बीमारी के कारण उन्होंने 2000 ई0 में श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दे दिया। इसके बाद भी वे सभी कार्यक्रमों में जाते रहे।

अन्तिम समय तक सक्रिय रहते हुए 14 जुलाई, 2003 को कौशिक आश्रम, पुणे में रज्जू भैया का देहान्त हो गया।

राजाभाऊ पातुरकर

संघ के प्रथम पीढ़ी के प्रचारकों में से एक श्री राजाभाऊ पातुरकर का जन्म 1915 में नागपुर में हुआ था। गहरा रंग, स्वस्थ व सुदृढ़ शरीर, कठोर मन, कलाप्रेम, अनुशासनप्रियता, किसी भी कठिनाई का साहस से सामना करना तथा सामाजिक कार्य के प्रति समर्पण के गुण उन्हें अपने पिताजी से मिले थे। 

खेलों में अत्यधिक रुचि के कारण वे अपने साथी छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे। महाल के सीताबर्डी विद्यालय में पढ़ते समय उनकी मित्रता श्री बापूराव बराड़पांडे, बालासाहब व भाऊराव देवरस, कृष्णराव मोहरील आदि से हुई। इनके माध्यम से उनका परिचय संघ शाखा और डा. हेडगेवार से हुआ।

मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद डा. जी ने उन्हें पढ़ने तथा शाखा खोलने के लिए पंजाब की राजधानी लाहौर भेज दिया। आत्मविश्वास के धनी राजाभाऊ उनका आदेश मानकर लाहौर पहुंच गये। हॉकी के अच्छे खिलाड़ी होने के कारण उनके कई मित्र बन गये; पर जिस काम से वे आये थे, उसमें अभी सफलता नहीं मिल रही थी। वे अकेले ही संघस्थान पर खड़े रहते और प्रार्थना कर लौट आते थे। 

एक बार कुछ मुस्लिम गुंडों ने विद्यालय के हिन्दू छात्रों से छेड़खानी की। राजाभाऊ ने अकेले ही उनकी खूब पिटाई की। इससे छात्रों और अध्यापकों के साथ पूरे नगर में उनकी धाक जम गयी। परिणाम यह हुआ कि जिस शाखा पर वे अकेले खड़े रहते थे, उस पर संख्या बढ़ने लगी।

संघ कार्य के लिए राजाभाऊ ने पंजाब में खूब प्रवास कर चप्पे-चप्पे की जानकारी प्राप्त की। वे पंजाबी भाषा भी अच्छी बोलने लगे। सैकड़ों परिवारों में उन्होंने घरेलू सम्बन्ध बना लिये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों की नजरबंदी से मुक्त कराते समय उनके भतीजे ने कोलकाता से लखनऊ पहुंचाया था। वहां से दिल्ली तक भाऊराव देवरस ने, दिल्ली से लाहौर तक बापूराव मोघे ने और लाहौर के बाद सीमा पार कराने में राजाभाऊ का विशेष योगदान रहा। 

लाहौर में काम की नींव मजबूत करने के बाद श्री गुरुजी ने उन्हें नागपुर बुला लिया। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय उन्होंने भूमिगत रहकर वहां सत्याग्रह का संचालन किया। प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद उन्हें विदर्भ भेजा गया। 1952 से 57 तक वे मध्यभारत के प्रांत प्रचारक रहे। इसके बाद श्री बालासाहब  देवरस की प्रेरणा से उन्होंने ‘भारती मंगलम्’ नामक संस्था बनाकर युवकों को देश के महापुरुषों के जीवन से परिचित कराने का काम प्रारम्भ किया।

सबसे पहले उन्होंने सिख गुरुओं की चित्र प्रदर्शनी बनायी। प्रदर्शनी के साथ ही राजाभाऊ का प्रेरक भाषण भी होता था। अपने प्रभावी भाषण से पंजाब के इतिहास और गुरुओं के बलिदान को वे सजीव कर देते थे। इस प्रदर्शनी की सर्वाधिक मांग गुरुद्वारों में ही होती थी। इसके बाद उन्होंने राजस्थान के गौरवपूर्ण इतिहास तथा छत्रपति शिवाजी के राष्ट्र जागरण कार्य को प्रदर्शनियों के माध्यम से देश के सम्मुख रखा। प्रदर्शनी देखकर लोग उत्साहित हो जाते थे। इन्हें बनवाने और प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने देश भर में प्रवास किया। 

इसके बाद उन्होंने संघ के संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार का स्वाधीनता आंदोलन में योगदान तथा उन्होंने संघ कार्य को देश भर में कैसे फैलाया, इसकी जानकारी एकत्र करने का बीड़ा उठाया। डा. जी जहां-जहां गये थे, राजाभाऊ ने वहां जाकर सामग्री एकत्र की। उन्होंने वहां के चित्र आदि लेकर एक चित्रमय झांकी तैयार की। इसके प्रदर्शन के समय उनका ओजस्वी भाषण डा0 हेडगेवार तथा संघ के प्रारम्भिक काल का जीवंत वातावरण प्रस्तुत कर देता था।

दो जनवरी, 1988 को अपनी प्रदर्शनियों के माध्यम से जनजागरण करने वाले राजाभाऊ पातुरकर का नागपुर में ही देहांत हुआ।

सादगी की प्रतिमूर्ति लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को विश्वव्यापी रूप देने में अप्रतिम भूमिका निभाने वाले श्री लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े का जन्म अकोला (महाराष्ट्र) में 1918 में हुआ था। उनके पिता श्री श्रीकृष्ण भिड़े सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्यरत थे। छात्र जीवन से ही उनमें सेवाभाव कूट-कूट कर भरा था। 

1932-33 में जब चन्द्रपुर में भयानक बाढ़ आयी, तो अपनी जान पर खेलकर उन्होंने अनेक परिवारों की रक्षा की। एक बार माँ को बिच्छू के काटने पर उन्होंने तुरन्त अपना जनेऊ माँ के पैर में बाँध दिया। इससे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया और माँ की जान बच गयी। 

चन्द्रपुर में उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे बाबासाहब आप्टे से बहुत प्रभावित थे। 1941 में वे प्रचारक बने तथा 1942 में उन्हें लखनऊ भेज दिया गया। 1942 से 57 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों एवं दायित्वों पर रहते हुए कार्य किया। 1957 में उन्हें कीनिया भेजा गया। 1961 में वे फिर उत्तर प्रदेश में आ गये। 1973 में उन्हें विश्व विभाग का कार्य दिया गया। इसके बाद बीस साल तक उन्होंने उन देशों का भ्रमण किया, जहाँ हिन्दू रहते हैं।

विदेशों में हिन्दू हित एवं भारत हित में उन्होंने अनेक संस्थाएँ बनायीं। इनमें 1978 में स्थापित ‘फ्रेंडस ऑफ इंडिया सोसायटी इंटरनेशनल’ प्रमुख है। 1990 में जब भारतीय दूतावास ही विदेशों में भारतीय जनता पार्टी की छवि धूमिल कर रहा था, तो उन्होंने ‘ओवरसीज फ्रेंडस ऑफ बी.जे.पी.’ का गठन कर कांग्रेसी षड्यन्त्र को विफल किया। जब मॉरीशस के चुनाव में गुटबाजी के कारण हिन्दुओं की दुर्दशा होने लगी, तो उन्होंने सबको बैठाकर समझौता कराया। इससे फिर से हिन्दू वहाँ विजयी हुए।

शरीर से बहुत दुबले भिड़े जी सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति थे। आवश्यकताएं कम होने के कारण उनका खर्चा भी बहुत कम होता था। विदेश प्रवास में कार्यकर्ता जबरन उनकी जेब में कुछ डॉलर डाल देते थे; पर लौटने पर वह वैसे ही रखे मिलते थे। वैश्विक प्रवास में ठण्डे देशों में वे कोट-पैंट पहन लेते थे; पर भारत में सदा वे धोती-कुर्ते में ही नजर आते थे। 

1992 में वे दीनदयाल शोध संस्थान के अध्यक्ष बने। दिल्ली में उसका केन्द्रीय कार्यालय है। वहाँ अपने कक्ष में लगे वातानुकूलन यन्त्र (ए.सी.) को उन्होंने कभी नहीं खोला। उस कक्ष की आल्मारियाँ सदा खाली रहीं, उनमें ताला भी नहीं लगता था। क्योंकि उन पर निजी सामान कुछ विशेष था ही नहीं।

अलग-अलग जलवायु और खानपान वाले देशों में निरन्तर प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। अंतिम कुछ महीनों में उन्हें गले सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं। इस कारण उनकी वाणी चली गयी। बहुत कठिनाई से कुछ तरल पदार्थ उनके गले से नीचे उतरते थे। फिर भी वे सबसे प्रसन्नता से मिलते थे तथा स्लेट पर लिखकर वार्तालाप करते थे। 

दिसम्बर 2000 में मुम्बई में ‘विश्व संघ शिविर’ हुआ। खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे वहाँ गये। विश्व भर के हजारों परिवारों में उन्हें बाबा, नाना, काका जैसा प्रेम और आदर मिलता था। यद्यपि वे बोल नहीं सकते थे; पर सबसे मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ सबके नाम लिखा उनका एक मार्मिक पत्र पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने सबसे विदा माँगी थी। 

उन्होंने सन्त तुकाराम के शब्दों को दोहराया - आमी जातो आपुल्या गावा, आमुचा राम-राम ध्यावा। पत्र पढ़ और सुनकर सबकी आँखें भीग गयीं। शिविर समाप्ति के एक सप्ताह बाद सात जनवरी, 2001 को उन्होंने सचमुच ही सबसे विदा ले ली।


अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे
सामान्यतः नेता या बड़े लोग दूसरों को तो अनुशासन की शिक्षा देते हैं; पर वे स्वयं इसका पालन नहीं करते। वे सोचते हैं कि अनुशासन का पालन करना दूसरों का काम है और वे इससे ऊपर हैं; पर 18 जनवरी, 1842 को महाराष्ट्र के एक गाँव निफड़ में जन्मे श्री महादेव गोविन्द रानाडे इसके अपवाद थे। उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसके साथ ही समाज सुधार उनकी चिन्ता का मुख्य विषय था।

एक बार उन्हें पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वार्षिकोत्सव समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होना था। आमन्त्रित अतिथियों को यथास्थान बैठाने के लिए द्वार पर कुछ कार्यकर्त्ता तैनात थे। उन्हें निर्देश था कि बिना निमन्त्रण पत्र के किसी को अन्दर न आने दें। 

श्री रानाडे का नाम तो निमन्त्रण पत्र पर छपा था; पर उनके पास उस समय वह निमन्त्रण पत्र नहीं था। द्वार पर तैनात वह कार्यकर्त्ता उन्हें पहचानता नहीं था। इसलिए उसने श्री रानाडे को नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया। श्री रानाडे ने इस बात का बुरा नहीं माना, वे बोले - बेटे, मेरे पास तो निमन्त्रण पत्र नहीं है। इतना कहकर वे सहज भाव से द्वार के पास ही खड़े हो गये।

थोड़ी देर में कार्यक्रम के आयोजकों की दृष्टि उन पर पड़े। वे दौड़कर आये और उस कार्यकर्ता को डाँटने लगे। इस पर वह कार्यकर्त्ता आयोजकों से ही भिड़ गया। उसने कहा कि आप लोगों ने ही मुझे यह काम सौंपा है और आप ही नियम तोड़ रहे हैं, ऐसे में मैं अपना कर्त्तव्य कैसे पूरा करूँगा। कोई भी अतिथि हो; पर नियमानुसार उस पर निमन्त्रण पत्र तो होना ही चाहिए।

आयोजक लोग उसे आवश्यकता से अधिक बोलता देख नाराज होने लगे; पर श्री रानाडे ने उन्हें शान्त कराया और उसकी अनुशासनप्रियता की सार्वजनिक रूप से अपने भाषण में प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आज ऐसे ही अनुशासनप्रिय लोगों की आवश्यकता है। यदि सभी भारतवासी अनुशासन का पालन करें, तो हमें स्वतन्त्रता भी शीघ्र मिल सकती है और उसके बाद देश की प्रगति भी तेजी से होगी। इतना ही नहीं, कार्यक्रम समाप्ति के बाद उन्होंने उस कार्यकर्ता की पीठ थपथपा कर उसे शाबासी दी। वह कार्यकर्ता आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हुआ। उसका नाम था गोपाल कृष्ण गोखले। 

श्री रानाडे में अनुशासन, देशप्रेम व चारि×य के ऐसे सुसंस्कार उनके परिवार से ही आये थे। उनका परिवार परम्परावादी था; पर श्री रानाडे खुले विचारों के होने के कारण प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये और फिर उसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गये। 

इस नाते उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषकर महाराष्ट्रीय परिवारों में व्याप्त कुरीतियों पर चोट की और समाज सुधार के प्रयास किये। उनका मत था कि स्वतन्त्र होने के बाद देश का सामाजिक रूप से सबल होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना आर्थिक रूप से। इसलिए वे समाज सुधार की प्रक्रिया में लगे रहे।

इस काम में उन्हें समाज के अनेक वर्गों का विरोध सहना पड़ा; पर वे विचलित नहीं हुए। उनका मानना था कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की पहल जो भी करेगा, उसे घर-परिवार तथा समाज के स्थापित लोगों से संघर्ष मोल लेना ही होगा। इसलिए इस प्रकार की मानसिकता बनाकर ही वे इस काम में लगे। इसीलिए आज भी उन्हें याद किया जाता है।


राजपथ से रामपथ पर - आचार्य गिरिराज किशोर


विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक आचार्य गिरिराज किशोर का जीवन बहुआयामी था। उनका जन्म चार फरवरी, 1920 को एटा (उ.प्र.) के मिसौली गांव में श्री श्यामलाल एवं श्रीमती अयोध्यादेवी के घर में मंझले पुत्र के रूप में हुआ। हाथरस और अलीगढ़ के बाद उन्होंने आगरा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगरा में श्री दीनदयाल उपाध्याय और श्री भव जुगादे के माध्यम से वे स्वयंसेवक बने और फिर उन्होंने संघ के लिए ही जीवन समर्पित कर दिया।

प्रचारक के नाते आचार्य जी मैनपुरीआगराभरतपुरधौलपुर आदि में रहे। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर वे मैनपुरीआगरा,बरेली तथा बनारस  की जेल में 13 महीने तक बंद रहे। वहां से छूटने के बाद संघ कार्य के साथ ही आचार्य जी ने बी.ए. तथा इतिहासहिन्दी व राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। साहित्य रत्न और संस्कृत की प्रथमा परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण कर ली। 1949 से 58 तक वे उन्नावआगराजालौन तथा उड़ीसा में प्रचारक रहे।

इसी दौरान उनके छोटे भाई वीरेन्द्र की अचानक मृत्यु हो गयी। ऐसे में परिवार की आर्थिक दशा संभालने हेतु वे भिण्ड (म.प्र.) के अड़ोखर कॉलेज में सीधे प्राचार्य बना दिये गये। इस काल में विद्यालय का चहुंमुखी विकास हुआ। एक बार डाकुओं ने छात्रावास पर धावा बोलकर कुछ छात्रों का अपहरण कर लिया। आचार्य जी ने जान पर खेलकर एक छात्र की रक्षा की। इससे चारों ओर वे विख्यात हो गये। यहां तक कि डाकू भी उनका सम्मान करने लगे।

आचार्य जी की रुचि सार्वजनिक जीवन में देखकर संघ ने उन्हें अ.भा. विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर संगठन मंत्री बनाया। नौकरी छोड़कर वे विद्यार्थी परिषद को सुदृढ़ करने लगे। उनका केन्द्र दिल्ली था। उसी समय दिल्ली वि.वि. में पहली बार विद्यार्थी परिषद ने अध्यक्ष पद जीता। फिर आचार्य जी को भारतीय जनसंघ का संगठन मंत्री बनाकर राजस्थान भेजा गया। आपातकाल में वे 15 मास भरतपुरजोधपुर और जयपुर जेल में रहे।

1979 में मीनाक्षीपुरम कांड’ ने पूरे देश में हलचल मचा दी। वहां गांव के सभी 3,000 हिन्दू एक साथ मुसलमान बन गये। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इससे चिंतित होकर डा. कर्णसिंह को कुछ करने को कहा। उन्होंने संघ से मिलकर विराट हिन्दू समाज’ नामक संस्था बनायी। संघ की ओर से श्री अशोक सिंहल इसमें लगे। दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में विशाल कार्यक्रम हुए। मथुरा के विराट हिन्दू सम्मेलन’ की जिम्मेदारी आचार्य जी पर थीपर धीरे-धीरे संघ के ध्यान में आया कि इंदिरा गांधी इससे अपनी राजनीति साधना चाहती हैं। अतः संघ ने हाथ खींच लिया। ऐसा होते ही वह संस्था भी ठप्प हो गयी। इसके बाद 1982 में अशोक जी तथा 1983 में आचार्य जी कोविश्व हिन्दू परिषद’ के काम में लगा दिया गया।
इन दोनों के नेतृत्व में संस्कृति रक्षा योजनाएकात्मता यज्ञ यात्राराम जानकी यात्रारामशिला पूजनराम ज्योति अभियानराममंदिर का शिलान्यास और फिर बाबरी ढांचे के ध्वंस आदि ने वि.हि.प. को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। संगठन विस्तार के लिए आचार्य जी ने इंग्लैंडहालैंडबेल्जियमफ्रांसस्पेनजर्मनीरूसनार्वेस्वीडनडेनमार्कइटली,मारीशसमोरक्कोगुयानानैरोबीश्रीलंकानेपालभूटानसिंगापुरजापानथाइलैंड आदि देशों की यात्रा की।

अपनी बात पर सदा दृढ़ रहने वाले आचार्य जी के मीडिया से बहुत मधुर संबंध रहते थे। 13 जुलाई, 2014 (रविवार) को वृद्धावस्था के कारण 95 वर्ष की सुदीर्घ आयु में उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति अंत तक बहुत अच्छी थी तथा वे सबसे बात भी करते थे। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र और फिर दधीचि देहदान समिति’ के माध्यम से पूरी देह दिल्ली के आर्मी मैडिकल कॉलिज को चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के उपयोग हेतु दान कर दी गयी। 

अल्पाहारी व अल्पभाषी वसंतराव केलकर

वसंतराव केलकर कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के निवासी थे। यों तो उनका पूरा नाम दिगम्बर गोपाल केलकर था; पर यह नाम केवल विद्यालय के प्रमाण पत्रों तक ही सीमित रहा। उनके पिताजी कोल्हापुर में पुरोहित थे। उनके साथ वसंतराव भी कभी-कभी जाते थे। संघ से संपर्क होने के बाद ऐसे पोथीवाचन और भोजन से मिलने वाली दक्षिणा राशि को वे गुरुदक्षिणा में अर्पण कर देते थे। 

कोल्हापुर से बी.ए. कर दो-तीन वर्ष तक उन्होंने अपने एक मित्र के टूरिंग टाकीज में काम किया। फिर उन्होंने पुणे से बी.कॉम. की परीक्षा दी और 1955 में प्रचारक बन गये। छात्र जीवन में भी खेलकूद और मौज-मस्ती के बदले पठन-पाठन, चिंतन और रामायण-महाभारत आदि पौराणिक ग्रंथ पढ़ने में उनकी अधिक रुचि थी। प्रचारक जीवन में भी उनका यह स्वभाव बना रहा। इन धर्मग्रन्थों में से टिप्पणियां तैयार कर उन्होंने कई पुस्तकें भी बनाईं।

दो वर्ष चिपलूण तहसील प्रचारक रहने के बाद वे पांच साल रत्नागिरि जिला और फिर अगले पांच साल कोल्हापुर विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद कई वर्ष वे महाराष्ट्र के सहप्रांत प्रचारक रहे। 1990 से 92 तक उनका स्वास्थ्य खराब रहा। ठीक होने पर 1992 से 97 तक वे गुजरात और महाराष्ट्र के क्षेत्र प्रचारक रहे; पर एक बार फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। पहले उंगलियां और फिर पूरा बायां हाथ ही लकवाग्रस्त हो गया। इसका उनके मन और मस्तिष्क पर भी असर पड़ा और वे एक बार फिर दायित्वमुक्त हो गये।

कम बोलने और कम खाने वाले वसंतराव का जीवन बड़ा नियमित था। वे प्रतिदिन योगाभ्यास व ध्यान करते थे। रेल में यात्रा करते समय अपनी बर्थ पर भी वे कुछ आसन कर लेते थे। पढ़ने में रुचि होने के कारण उन्होंने आयुर्वेद, होम्योपैथी, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर और प्राकृतिक चिकित्सा की कई पुस्तकें पढ़ीं और उनके प्रयोग स्वयं पर किये। 

उनकी वाणी बहुत मधुर थी; पर हस्तलेख खराब होने के कारण वे पत्र-व्यवहार बहुत कम करते थे। कहीं भी बौद्धिक देने से पूर्व वे उसकी अच्छी तैयारी करते थे। उनके बौद्धिक में अंग्रेजी और संस्कृत के उद्धरणों के साथ ही गीत की कुछ पंक्तियां भी शामिल रहती थीं। 

आपातकाल में पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। भूमिगत रहकर सत्याग्रह का उन्होंने सफल संचालन किया। आपातकाल के बाद वे पूर्ववत संघ के काम में लग गये। शाखा के लिए उनके मन में अतीव श्रद्धा थी। छात्र जीवन में एक प्रतिज्ञा कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि जब इसे आजीवन निभाने की मानसिकता होगी, तब ही प्रतिज्ञा लूंगा, और उन्होंने कुछ समय बाद ही प्रतिज्ञा ली। 

प्रवास संघ कार्य का प्राण है। अतः वे किसी भी परिस्थिति में इसे स्थगित नहीं करते थे। 1974 में महाराष्ट्र के सभी गांव और घरों तक शिवसंदेश पत्रिका पहुंचाने तथा 1983 में पुणे के पास तलजाई में सम्पन्न हुए अति भव्य प्रांतीय शिविर के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।

स्वास्थ्य लाभ के लिए वे पुणे, दापोली, डोंबिवली, लातूर आदि में रहे; पर ईश्वर की इच्छानुसार 13 फरवरी, 2001 को उनका देहांत हो गया। जिन दिनों वे रत्नागिरि में जिला प्रचारक थे, तब वहां के कार्यकर्ताओं ने उनसे कहा कि प्रचारक जीवन से निवृत्त होकर आप यहीं रहें। वसंतराव की स्वीकृति होने पर उन्होंने दापोली में एक मैडिकल स्टोर खोलकर उसे चलाने की जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता को दे दी। यह स्टोर बहुत सफल हुआ। वसंतराव की इच्छानुसार उनके देहांत के बाद उससे प्राप्त 11 लाख रु0 का लाभांश प्रांत संघचालक, कार्यवाह और प्रचारक के सुझाव पर डा0 हेडगेवार स्मारक निधि में दे दिया गया।

संगठन के मर्मज्ञ माधवराव देवड़े

बालपन में ही संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार का पावन संस्पर्श पाकर जिन लोगों का जीवन धन्य हुआ, माधवराव भी उनमें से एक थे। नागपुर के एक अति साधारण परिवार में उनका जन्म 8 मार्च, 1922 को हुआ था। 

एक मन्दिर की पूजा अर्चना से उनके परिजनों की आजीविका चलती थी। मन्दिर में ही उन्हें आवास भी मिला था। इस नाते उनका परिवार पूर्ण धार्मिक था। देवमन्दिर से जुड़े रहने के कारण उनके नाम के साथ ‘देवले’ गोत्र लग गया, जो उत्तर प्रदेश में आकर ‘देवड़े’ हो गया।

माधवराव की सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में हुई। छात्र जीवन में वे कुछ समय कम्युनिस्टों से भी प्रभावित रहे; पर उनकी रुचि खेल और विशेषकर कबड्डी में बहुत थी। गर्मियों की छुट्टियों में जब वे मामा जी के घर गये, तो वहाँ लगने वाली शाखा में हो रही कबड्डी के आकर्षण से वह भी शाखा में शामिल हो गये। कबड्डी के प्रति उनका यह प्रेम सदा बना रहा। प्रचारकों के वर्ग में वे प्रांत प्रचारक होते हुए भी कबड्डी खेलने के लिए के मैदान में उतर आते थे।

मामा जी के घर से लौटकर फिर वे नागपुर की शाखा में जाने लगे। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से बढ़ता गया और वे कब शाखा में तन-मन से रम गये, इसका उन्हें पता ही नहीं लगा। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, अतः घर वालों ने शिक्षा पूरी होने पर नौकरी करने को कहा। 

यों तो माधवराव संघ के लिए सम्पूर्ण जीवन देने का निश्चय कर चुके थे; पर वे कुछ समय नौकरी कर घर को भी ठीक करना चाहते थे। एक स्थान पर जब वे नौकरी के लिए गये, तो वहाँ लगातार काम करने का अनुबन्ध करने को कहा गया। माधवराव ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे नौकरी को लात मार कर घर वापस आ गये।

यह 1942 का काल था। देश में गांधी जी का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ जोरों पर था। विभाजन की आशंका से भारत भयभीत था। विश्वाकाश पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल भी गरज-बरस रहे थे। ऐसे में जब द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने युवकों से अपना जीवन देश की सेवा में अर्पण करने को कहा, तो युवा माधवराव भी इस पंक्ति में आ खड़े हुए। श्री गुरुजी ने उन्हें उत्तर प्रदेश के जौनपुर में भेजा। 

उत्तर प्रदेश की भाषा, खानपान और परम्पराओं से एकदम अनभिज्ञ माधवराव एक बार इधर आये, तो फिर वापस जाने का कभी सोचा ही नहीं। उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर काम करने के बाद 1968 में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। आपातकाल में शाहबाद (जिला रामपुर) में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर मीसा में जेल भेज दिया।

आपातकाल के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय प्रचारक की जिम्मेदारी मिली। हर कार्यकर्ता की बात को गम्भीरता से सुनकर उसे टाले बिना उचित निर्णय करना, यह उनकी कार्यशैली की विशेषता थी। इसीलिए जो उनके सम्पर्क में आया, वह सदा के लिए उनका होकर रह गया। 

श्री देवड़े जी मधुमेह से पीडि़त थे। उनका कद छोटा और शरीर हल्का था। फिर भी प्रदेश की हर तहसील का उन्होंने सघन प्रवास किया। वे कम बोलते थे; पर जब बोलते थे, तो कोई उनकी बात टालता नहीं था। प्रवास में कष्ट होने पर 1995-96 में उन्हें विद्या भारती, उत्तर प्रदेश का संरक्षक बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अनेक शिक्षा-प्रकल्पों को नव आयाम प्रदान किये। 

77 वर्ष की आयु में निराला नगर, लखनऊ में 23 अगस्त, 1998 को रात में सोते-सोते ही वह चिरनिद्रा में लीन हो गये।

आदर्श कार्यकर्ता अप्पा जी जोशी


एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने कार्यकर्ता  बैठक में कहा कि क्या केवल संघकार्य किसी के जीवन का ध्येय नहीं बन सकता ? यह सुनकर हरिकृष्ण जोशी ने उन 56 संस्थाओं से त्यागपत्र दे दिया, जिनसे वे सम्बद्ध थे। यही बाद में ‘अप्पा जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

30 मार्च, 1897 को महाराष्ट्र के वर्धा में जन्मे अप्पा जी ने क्रांतिकारियों तथा कांग्रेस के साथ रहकर काम किया। कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जमनालाल बजाज के वे निकट सहयोगी थे; पर डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आने पर उन्होंने बाकी सबको छोड़ दिया। डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी और बालासाहब देवरस, इन तीनों सरसंघचालकों के दायित्वग्रहण के समय वे उपस्थित थे।

उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता। उनके पिता एक वकील के पास मुंशी थे। उनके 12 वर्ष की अवस्था में पहुँचते तक पिताजी, चाचाजी और तीन भाई दिवंगत हो गये। ऐसे में बड़ी कठिनाई से उन्होंने कक्षा दस तक पढ़ाई की। 1905 में बंग-भंग आन्दोलन से प्रभावित होकर वे स्वाधीनता समर में कूद गये। 1906 में लोकमान्य तिलक के दर्शन हेतु जब वे विद्यालय छोड़कर रेलवे स्टेशन गये, तो अगले दिन अध्यापक ने उन्हें बहुत मारा; पर इससे उनके अन्तःकरण में देशप्रेम की ज्वाला और धधक उठी।

14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया और वे भी एक वकील के पास मुंशी बन गये; पर सामाजिक कार्यों के प्रति उनकी सक्रियता बनी रही। वे नियमित अखाड़े में जाते थे। वहीं उनका सम्पर्क संघ के स्वयंसेवक श्री अण्णा सोहनी और उनके माध्यम से डा. हेडगेवार से हुआ। डा. जी बिना किसी को बताये देश भर में क्रान्तिकारियों को विभिन्न प्रकार की सहायता सामग्री भेजते थे, उसमें अप्पा जी उनके विश्वस्त सहयोगी बन गये। कई बार तो उन्होंने स्त्री वेष धारणकर यह कार्य किया।

दिन-रात कांग्रेस के लिए काम करने से उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। यह देखकर कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जमनालाल बजाज ने इन्हें कांग्रेस के कोष से वेतन देना चाहा; पर इन्होंने मना कर दिया। 1947 के बाद जहाँ अन्य कांग्रेसियों ने ताम्रपत्र और पेंशन ली, वहीं अप्पा जी ने यह स्वीकार नहीं किया। आपातकाल में वे मीसा में बन्द रहे; पर उससे भी उन्होंने कुछ लाभ नहीं लिया। वे देशसेवा की कीमत वसूलने को पाप मानते थे।

एक बार कांग्रेस के काम से अप्पा जी नागपुर आये। तब डा. हेडगेवार के घर में ही बैठक के रूप में शाखा लगती थी। अप्पा जी ने उसे देखा और वापस आकर 18 फरवरी, 1926 को वर्धा में शाखा प्रारम्भ कर दी। यह नागपुर के बाहर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा थी। डा. हेडगेवार ने स्वयं उन्हें वर्धा जिला संघचालक का दायित्व दिया था।

नवम्बर, 1929 में नागपुर में प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक में सबसे परामर्श कर अप्पा जी ने निर्णय लिया कि डा. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक होने चाहिए। 10 नवम्बर शाम को जब सब संघस्थान पर आये, तो अप्पा जी ने सबको दक्ष देकर ‘सरसंघचालक प्रणाम एक-दो-तीन’ की आज्ञा दी। सबके साथ डा. जी ने भी प्रणाम किया। इसके बाद अप्पा जी ने घोषित किया कि आज से डा. जी सरसंघचालक बन गये हैं।

1934 में गांधी जी को वर्धा के संघ शिविर में अप्पा जी ही लाये थे। 1946 में वे सरकार्यवाह बने। अन्त समय तक सक्रिय रहते हुए 21 दिसम्बर, 1979 को अप्पा जी जोशी का देहान्त हुआ।



भीमबेटका गुफा चित्रों के अन्वेषक हरिभाऊ वाकणकर


भारतीय सभ्यता न केवल लाखों वर्ष प्राचीन है, अपितु वह अत्यन्त समृद्ध भी रही है। इसे विश्व के सम्मुख लाने में जिन लोगों का विशेष योगदान रहा, उनमें श्री विष्णु श्रीधर (हरिभाऊ) वाकणकर का नाम उल्लेखनीय है।

हरिभाऊ का जन्म 4 मई, 1919 को नीमच (जिला मंदसौर, म.प्र.) में हुआ था। इतिहास, पुरातत्व एवं चित्रकला में विशेष रुचि होने के कारण अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर वे उज्जैन आ गये और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे वहां पर ही प्राध्यापक हो गये। 

उज्जैन के पास दंतेवाड़ा ग्राम में हुई खुदाई के समय उन्होंने अत्यधिक श्रम किया। 1958 में वे एक बार रेल से यात्रा कर रहे थे कि मार्ग में उन्होंने कुछ गुफाओं और चट्टानों को देखा। साथ के यात्रियों से पूछने पर पता लगा कि यह भीमबेटका (भीम बैठका) नामक क्षेत्र है तथा यहां गुफा की दीवारों पर कुछ चित्र बने हैं; पर जंगली पशुओं के भय से लोग वहां नहीं जाते।

हरिभाऊ की आंखों में यह सुनकर चमक आ गयी। रेल कुछ देर बाद जब धीमी हुई, तो वे चलती गाड़ी से कूद गये और कई घंटे की चढ़ाई चढ़कर उन पहाडि़यों पर जा पहुंचे। वहां गुफाओं पर बने मानव और पशुओं के चित्रों को देखकर वे समझ गये कि ये लाखों वर्ष पूर्व यहां बसने वाले मानवों द्वारा बनाये गये हैं। वे लगातार 15 वर्ष तक यहां आते रहे। इस प्रकार इन गुफा चित्रों से संसार का परिचय हुआ। इससे हरिभाऊ को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली और भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।

संघ के स्वयंसेवक होने के नाते वे सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय थे। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, म.प्र. के अध्यक्ष रहे। विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद 1966 में प्रयाग में जब प्रथम 'विश्व हिन्दू सम्मेलन' हुआ, तो एकनाथ रानाडे ने उन्हें वहां प्रदर्शिनी बनाने तथा सज्जा करने के लिए भेजा। फिर तो ऐसे हर सम्मेलन में हरिभाऊ की उपस्थिति अनिवार्य हो गयी। इसके बाद वे विश्व के अनेक देशों में गये और वहां भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान आदि पर व्याख्यान दिये। 1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें उसका महामंत्री बनाया गया।

एक बार वे लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में शोध कर रहे थे। वहां उन्होंने सरस्वती की वह प्राचीन प्रतिमा देखी, जिसे धार की भोजशाला पर हमला कर मुस्लिमों ने तोड़ा था। धार में ही जन्मे हरिभाऊ यह देखकर भावुक हो उठे। अगले दिन वे संग्रहालय में गये और प्रतिमा पर एक पुष्प चढ़ाकर वंदना करने लगे। 

उनकी आंखों में आंसू देखकर संग्रहालय का प्रमुख बहुत प्रभावित हुआ। उसने हरिभाऊ को एक अल्मारी दिखाई, जिसमें अनेक अंग्रेज अधिकारियों की डायरियां रखीं थीं। इनमें वास्कोडिगामा की डायरी भी थी, जिसमें उसने स्पष्ट लिखा है कि वह मसालों के एक व्यापारी ‘चंदन’ के जलयान के पीछे चलकर भारत में कोचीन के तट पर आया। कैसी मूर्खता है कि इस पर भी इतिहासकार उस पुर्तगाली डाकू को भारत की खोज का श्रेय देते हैं।

एक बार हरिभाऊ एक हिन्दू सम्मेलन में भाग लेने के लिए सिंगापुर गये। वहां उनके होटल से समुद्र का मनमोहक दृश्य हर समय दिखाई देता था। चार अप्रैल, 1988 को जब वे निर्धारित समय पर सम्मेलन में नहीं पहुंचे, तो लोगों ने होटल जाकर देखा। हरिभाऊ बालकनी में एक कुर्सी पर बैठे थे। घुटनों पर रखे एक बड़े कागज पर अठखेलियां करते समुद्र का आधा चित्र बना था, हाथ की पंेसिल नीचे गिरी थी। इस प्रकार चित्र बनाते समय हुए भीषण हृदयाघात ने उस कला साधक के जीवन के चित्र को ही सम्पूर्ण कर दिया।


निष्ठावान कार्यकर्ता हो.वे.शेषाद्रि


आज तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का साहित्य हर भाषा में प्रचुर मात्रा में निर्माण हो रहा है; पर इस कार्य के प्रारम्भ में जिन कार्यकर्ताओं की प्रमुख भूमिका रही, उनमें श्री होंगसन्द्र वेंकटरमैया शेषाद्रि जी का नाम शीर्ष पर है। 

26 मई, 1926 को बंगलौर में जन्मे शेषाद्रि जी 1943 में स्वयंसेवक बने। 1946 में मैसूर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक पाकर उन्होंने एम.एस-सी. किया और अपना जीवन प्रचारक के नाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हेतु समर्पित कर दिया।

प्रारम्भ में उनका कार्यक्षेत्र मंगलौर विभाग, फिर कर्नाटक प्रान्त और फिर पूरा दक्षिण भारत रहा। 1986 तक वे दक्षिण में ही सक्रिय रहे। वे श्री यादवराव जोशी से बहुत प्रभावित थे। 1987 से 2000 तक वे संघ के सरकार्यवाह रहे। इस नाते उन्होंने पूरे भारत तथा विश्व के कुछ देशों में भी प्रवास किया। 

कार्य की व्यस्तता के बाद भी वे प्रतिदिन लिखने के लिए समय निकाल लेते थे। वे दक्षिण के विक्रम साप्ताहिक, उत्थान मासिक, दिल्ली के पांचजन्य और आर्गनाइजर साप्ताहिक तथा लखनऊ के राष्ट्रधर्म मासिक के लिए प्रायः लिखते रहते थे। उनके लेखों की पाठक उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। उन्होंने संघ तथा अन्य हिन्दू साहित्य के प्रकाशन के लिए श्री यादवराव के निर्देशन में बंगलौर में ‘राष्ट्रोत्थान परिषद्’ की स्थापना की। सेवा कार्यों के विस्तार एवं संस्कृत के उत्थान के लिए भी उन्होंने सघन कार्य किया।

शेषाद्रि जी ने यों तो सौ से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तकंे लिखीं; पर उन्होंने ही सर्वप्रथम द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के भाषणों को ‘बंच ऑफ थॉट्स'  के रूप में संकलित किया। आज भी इसके संस्करण प्रतिवर्ष छपते हैं। इसके अतिरिक्त कृतिरूप संघ दर्शन, युगावतार, और देश बँट गया, नान्यः पन्था, मूल्यांकन, द वे, हिन्दूज अब्रोड डाइलेमा, उजाले की ओर.. आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इन सबके कई भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। ‘तोरबेरलु’ को 1982 में कन्नड़ साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया।

शेषाद्रि जी की भाषण शैली भी अद्भुत थी। वे सरल एवं रोचक उदाहरण देकर अपनी बात श्रोताओं के मन में उतार देते थे। 1984 में न्यूयार्क (अमरीका) के विश्व हिन्दू सम्मेलन तथा ब्रेडफोर्ड (ब्रिटेन) के हिन्दू संगम में उन्हें विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया था। उनके भाषणों से वहां लोग बहुत प्रभावित हुए।

अत्यधिक शारीरिक एवं मानसिक श्रम के कारण उनका शरीर अनेक रोगों का घर बन गया। जब चैथे सरसंघचालक रज्जू भैया अपने खराब स्वास्थ्य के कारण अवकाश लेना चाहते थे, तो सब कार्यकर्ता चाहते थे कि शेषाद्रि जी यह दायित्व संभालें; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, अतः किसी युवा कार्यकर्ता को यह काम दिया जाये। अन्ततः सह सरकार्यवाह श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दिया गया। शेषाद्रि जी निरहंकार भाव से सह सरकार्यवाह और फिर प्रचारक प्रमुख के नाते कार्य करते रहे।

अन्तिम दिनों में वे बंगलौर कार्यालय पर रह रहे थे। वहाँ सायं शाखा पर फिसलने से उनके पैर की हड्डी टूट गयी। एक बार पहले भी उनकी कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी। इस बार इलाज के दौरान उनके शरीर में संक्रमण फैल गया। इससे उनके सब अंग क्रमशः निष्क्रिय होते चले गये। 

कुछ दिन उन्हें चिकित्सालय में रखा गया। जब उन्हें लगा कि अब इस शरीर से संघ-कार्य सम्भव नहीं रह गया है, तो उन्होंने सब जीवन-रक्षक उपकरण हटवा दिये। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें संघ कार्यालय ले आया गया। वहीं 14 अगस्त, 2005 की शाम को उनका देहान्त हो गया।



प्रसिद्धि से दूर   : भाऊसाहब भुस्कुटे


संघ संस्थापक डा. हेडगेवार की दृष्टि बड़ी अचूक थी। उन्होंने ढूँढ-ढूँढकर ऐसे हीरे एकत्र किये, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन और परिवार की चिन्ता किये बिना पूरे देश में संघ कार्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ऐसे ही एक श्रेष्ठ प्रचारक थे 14 जून, 1915 को बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में जन्मे श्री गोविन्द कृष्ण भुस्कुटे, जो भाऊसाहब भुस्कुटे के नाम से प्रसिद्ध हुए।

18 वीं सदी में इनके अधिकांश पूर्वजों को जंजीरा के किलेदार सिद्दी ने मार डाला था। जो किसी तरह बच गयेे, वे पेशवा की सेना में भर्ती हो गयेे। उनके शौर्य से प्रभावित होकर पेशवा ने उन्हें बुरहानपुर, टिमरनी और निकटवर्ती क्षेत्र की जागीर उपहार में दे दी थी। उस क्षेत्र में लुटेरों का बड़ा आतंक था; पर इनके पुरखों ने उन्हें कठोरता से समाप्त किया। इस कारण इनके परिवार को पूरे क्षेत्र में बड़े आदर से देखा जाता था।

इनका परिवार टिमरनी की विशाल गढ़ी में रहता था। भाऊसाहब सरदार कृष्णराव एवं माता अन्नपूर्णा की एकमात्र सन्तान थे। अतः इन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देखना पड़ा। प्राथमिक शिक्षा अपने स्थान पर ही पूरी कर वे पढ़़ने के लिए नागपुर आ गये। 1932 की विजयादशमी से वे नियमित शाखा पर जाने लगे।

1933 में उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से हुआ। भाऊसाहब ने 1937 में बी.ए आनर्स, 1938 में एम.ए तथा 1939 में कानून की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी दौरान उन्होंने संघ शिक्षा वर्गों का प्रशिक्षण भी पूरा किया और संघ योजना से प्रतिवर्ष शिक्षक के रूप में देश भर के वर्गों में जाने लगे।

जब भाऊसाहब ने प्रचारक बनने का निश्चय किया, तो वंश समाप्ति के भय से घर में खलबली मच गयी; क्योंकि वे अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। प्रारम्भ में उन्हें झाँसी भेजा गया; पर फिर डा. हेडगेवार ने उन्हें गृहस्थ जीवन अपनाकर प्रचारक जैसा काम करने की अनुमति दी। 1941 में उनका विवाह हुआ और इस प्रकार वे प्रथम गृहस्थ प्रचारक बने। वे संघ से केवल प्रवास व्यय लेते थे, शेष खर्च वे अपनी जेब से करते थे।

यद्यपि भाऊसाहब बहुत सम्पन्न परिवार के थे; पर उनका रहन सहन इतना साधारण था कि किसी को ऐसा अनुभव ही नहीं होता था। प्रवास के समय अत्यधिक निर्धन कार्यकर्त्ता के घर रुकने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। धार्मिक वृत्ति के होने के बाद भी वे देश और धर्म के लिए घातक बनीं रूढ़ियांे तथा कार्य में बाधक धार्मिक परम्पराओं से दूर रहते थे। द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी सब कार्यकर्त्ताओं को भाऊसाहब से प्रेरणा लेने को कहते थे।

1948 में गांधी हत्याकाण्ड के समय उन्हें गिरफ्तार कर छह मास तक होशंगाबाद जेल में रखा गया; पर मुक्त होते ही उन्होंने संगठन के आदेशानुसार फिर सत्याग्रह कर दिया। इस बार वे प्रतिबंध समाप्ति के बाद ही जेल से बाहर आये। आपातकाल में 1975 से 1977 तक पूरे समय वे जेल में रहे। जेल में उन्होंने अनेक स्वयंसेवकों को संस्कृत तथा अंग्रेजी सिखाई। जेल में ही उन्होंने ‘हिन्दू धर्म: मानव धर्म’ नामक ग्रन्थ की रचना की।

उन पर प्रान्त कार्यवाह से लेकर क्षेत्र प्रचारक तक के दायित्व रहे। भारतीय किसान संघ की स्थापना होने पर श्री दत्तोपन्त ठेेंगड़ी के साथ भाऊसाहब भी उसके मार्गदर्शक रहे। 75 वर्ष पूरे होने पर कार्यकर्त्ताओं ने उनके ‘अमृत महोत्सव’ की योजना बनायी। भाऊसाहब इसके लिए बड़ी कठिनाई से तैयार हुए। वे कहते थे कि मैं उससे पहले ही भाग जाऊँगा और तुम ढूँढते रह जाओगे। वसंत पंचमी (21 जनवरी, 1991) की तिथि इसके लिए निश्चित की गयी; पर उससे बीस दिन पूर्व एक जनवरी, 1991 को वे सचमुच चले गये।


डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान
छह जुलाई, 1901 को कोलकाता में श्री आशुतोष मुखर्जी एवं योगमाया देवी के घर में जन्मे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को दो कारणों से सदा याद किया जाता है। पहला तो यह कि वे योग्य पिता के योग्य पुत्र थे। श्री आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे।1924 में उनके देहान्त के बाद केवल 23 वर्ष की अवस्था में ही श्यामाप्रसाद को विश्वविद्यालय की प्रबन्ध समिति में ले लिया गया। 33 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति की उस कुर्सी पर बैठने का गौरव मिला, जिसे किसी समय उनके पिता ने विभूषित किया था। चार वर्ष के अपने कार्यकाल में उन्होंने विश्वविद्यालय को चहुँमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर किया।
दूसरे जिस कारण से डा. मुखर्जी को याद किया जाता है, वह है जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की माँग को लेकर उनके द्वारा किया गया सत्याग्रह एवं बलिदान। 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के बाद गृहमन्त्री सरदार पटेल के प्रयास से सभी देसी रियासतों का भारत में पूर्ण विलय हो गया; पर प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण जम्मू कश्मीर का विलय पूर्ण नहीं हो पाया। उन्होंने वहाँ के शासक राजा हरिसिंह को हटाकर शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी। शेख जम्मू कश्मीर को स्वतन्त्र बनाये रखने या पाकिस्तान में मिलाने के षड्यन्त्र में लगा था।
शेख ने जम्मू कश्मीर में आने वाले हर भारतीय को अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। 1953 में प्रजा परिषद तथा भारतीय जनसंघ ने इसके विरोध में सत्याग्रह किया। नेहरू तथा शेख ने पूरी ताकत से इस आन्दोलन को कुचलना चाहा; पर वे विफल रहे। पूरे देश में यह नारा गूँज उठा - एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान: नहीं चलेंगे।

डा. मुखर्जी जनसंघ के अध्यक्ष थे। वे सत्याग्रह करते हुए बिना अनुमति जम्मू कश्मीर में गये। इस पर शेख अब्दुल्ला ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 20 जून को उनकी तबियत खराब होने पर उन्हें कुछ ऐसी दवाएँ दी गयीं, जिससे उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया। 22 जून को उन्हें अस्पताल में भरती किया गया। उनके साथ जो लोग थे, उन्हें भी साथ नहीं जाने दिया गया। रात में ही अस्पताल में ढाई बजे रहस्यमयी परिस्थिति में उनका देहान्त हुआ।

मृत्यु के बाद भी शासन ने उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया। उनके शव को वायुसेना के विमान से दिल्ली ले जाने की योजना बनी; पर दिल्ली का वातावरण गरम देखकर शासन ने विमान को अम्बाला और जालन्धर होते हुए कोलकाता भेज दिया। कोलकाता में दमदम हवाई अड्डे से रात्रि 9.30 बजे चलकर पन्द्रह कि.मी दूर उनके घर तक पहुँचने में सुबह के पाँच बज गये। 24 जून को दिन में ग्यारह बजे शुरू हुई शवयात्रा तीन बजे शमशान पहुँची। हजारों लोगों ने उनके अन्तिम दर्शन किये।

आश्चर्य की बात तो यह है कि डा. मुखर्जी तथा उनके साथी शिक्षित तथा अनुभवी लोग थे; पर पूछने पर भी उन्हें दवाओं के बारे में नहीं बताया गया। उनकी मृत्यु जिन सन्देहास्पद स्थितियों में हुई तथा बाद में उसकी जाँच न करते हुए मामले पर लीपापोती की गयी, उससे इस आशंका की पुष्टि होती है कि यह नेहरू और शेख अब्दुल्ला द्वारा करायी गयी चिकित्सकीय हत्या थी।
डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने बलिदान से जम्मू-कश्मीर को बचा लिया। अन्यथा शेख अब्दुल्ला उसे पाकिस्तान में मिला देता।


कर्नाटक केसरी : जगन्नाथ राव जोशी


भारतीय जनसंघ के जन्म से लेकर अपनी मृत्यु तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख देश भर में जगाने वाले, कर्नाटक केसरी के नाम से विख्यात श्री जगन्नाथ राव जोशी का जन्म कर्नाटक के नरगुंड गांव में 23 जून, 1920 को हुआ था। उनके पिताजी पर उस गांव के धर्मस्थलों की देखभाल की जिम्मेदारी थी। कर्नाटक मूल के पिता और महाराष्ट्र मूल की मां के कारण जगन्नाथ जी को बचपन से ही दोनों भाषाओं में महारत प्राप्त हो गयी।

कक्षा तीन तक की शिक्षा गांव में पाकर वे अपने मामा के पास पुणे चले गये। उनकी शेष शिक्षा वहीं हुई। उन्होंने अंग्रेजी विषय लेकर बी.एड किया था। अतः अंग्रेजी पर भी उनका प्रभुत्व हो गया। पुणे में ही उनका सम्पर्क संघ शाखा से हुआ। शिक्षा पूर्ण कर वे सरकारी सेवा में लग गये;पर कुछ समय बाद वे प्रचारक बन कर कर्नाटक ही पहुंच गये। वहां उनकी तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी से अत्यधिक घनिष्ठता हो गयी। इस कारण उनके जीवन पर श्री यादवराव का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

संघ के पहले प्रतिबन्ध के समय वे जेल में रहे। जब गोवा मुक्ति के लिए सत्याग्रह हुआ, तब पहले जत्थे का नेतृत्व उन्होंने किया। वे लगभग पौने दो साल जेल में रहे। वहां उन पर जो अत्याचार हुए, उसका प्रभाव जीवन भर रहा; पर उन्होंने कभी इसकी चर्चा नहीं की। गोवा मुक्त होने पर शासन ने अनेक सत्याग्रहियों को मकान दिये; पर जगन्नाथ जी ने यह स्वीकार नहीं किया।

जनसंघ में रहकर भी वे संघर्ष के काम में सदा आगे रहते थे। 1965 में कच्छ समझौते के विरोध में हुए आंदोलन के लिए उन्होंने पूरे देश में भ्रमण कर अपनी अमोघ वाणी से देशवासियों को जाग्रत किया। 1967 में वे सांसद बने। आपातकाल के प्रस्ताव का उन्होंने प्रबल विरोध किया। एक सांसद ने जेल का भय दिखाया, तो वे उस पर ही बरस पड़े, ‘‘ जेल का डर किसेे दिखाते हो; जो सालाजार से नहीं डरे, जो पुर्तगालियों ने नहीं डरे, तो क्या तुमसे डरेंगे ? ऐसी धमकी से डरने वाले नामर्द तुम्हारी बगल में बैठे हैं।’’

इस पर उन्हें दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया। जनता पार्टी के शासन में उन्हें राज्यपाल का पद प्रस्तावित किया गया; पर उन्होंने इसके बदले देश भर में घूम कर संगठन को सबल बनाने का काम स्वीकार किया।

जगन्नाथ जी कथा, कहानी, शब्द पहेली, चुटकुलों और गपशप के सम्राट थे। हाजिरजवाबी में वे बीरबल के भी उस्ताद थे। व्यक्तिगत वार्ता में ही नहीं, तो जनसभाओं में भी उनके ऐसे किस्सों का लोग खूब आनंद उठाते थे। उनके क्रोध को एक मित्र ने 'प्रेशर कुकर' की उपाधि दी थी, जो सीटी तो बहुत तेज बजाता है; पर उसके बाद तुरन्त शांत भी हो जाता है।

जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के काम को देश भर में पहुंचाने के लिए जगन्नाथ जी ने 40 वर्ष तक अथक परिश्रम किया। कर्नाटक में उन्होंने संगठन को ग्राम स्तर तक पहुंचाया। अतः उन्हें ‘कर्नाटक केसरी’कहा जाता है। प्रवास की इस अनियमितता के कारण वे मधुमेह के शिकार हो गये। अंगूठे की चोट से उनके पैर में गैंग्रीन हो गया और उसे काटना पड़ा। लेकिन फिर भी वे ठीक नहीं हो सके और 15 जुलाई, 1991 को उनका देहांत हो गया।

जगन्नाथ जी यद्यपि अनेक वर्ष सांसद रहे; पर देहांत के समय उनके पास कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं थी। गांव में उनके हिस्से की खेती पट्टेदार कानून में चली गयी। मां की मृत्यु के बाद उन्होंने पुश्तैनी घर से भी अधिकार छोड़ दिया। इस प्रकार प्रचारक वृत्ति का एक श्रेष्ठ आदर्श उन्होंने स्थापित किया।

कर्तव्य कठोर : दादाराव परमार्थ



बात एक अगस्त, 1920 की है। लोकमान्य तिलक के देहान्त के कारण पूरा देश शोक में डूबा था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार किसी कार्य से घर से निकले। उन्होंने देखा कुछ लड़के सड़क पर गेंद खेल रहे हैं। डा. जी क्रोध में उबल पड़े - तिलक जी जैसे महान् नेता का देहान्त हो गया और तुम्हें खेल सूझ रहा है। सब बच्चे सहम गये। इन्हीं में एक थे गोविन्द सीताराम परमार्थ, जो आगे चलकर दादाराव परमार्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

दादाराव का जन्म नागपुर के इतवारी मौहल्ले में 1904 में हुआ था। इनके पिता डाक विभाग में काम करते थे। केवल चार वर्ष की अवस्था में इनकी माँ का देहान्त हो गया। पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। इस कारण से दादाराव को माँ के प्यार के बदले सौतेली माँ की उपेक्षा ही अधिक मिली। मैट्रिक में पढ़ते समय इनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हो गया। साइमन कमीशन के विरुद्ध आन्दोलन के समय पुलिस इन्हें पकड़ने आयी; पर ये फरार हो गये। पिताजी ने इन्हें परीक्षा देने के लिए पंजाब भेजा; पर परीक्षा पुस्तिका इन्होंने अंग्रेजों की आलोचना से भर दी। ऐसे में परिणाम क्या होना था, यह स्पष्ट है।

दादाराव का सम्बन्ध भगतसिंह तथा राजगुरू से भी था। भगतसिंह,सुखदेव और राजगुरू की फाँसी के बाद हुई तोड़फोड़ में पुलिस इन्हें पकड़कर ले गयी थी। जब इनका सम्बन्ध डा. हेडगेवार से अधिक हुआ,तो ये संघ के लिए पूरी तरह समर्पित हो गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रारम्भ में डा. हेडगेवार के साथ काम करने वालों में बाबासाहब आप्टे तथा दादाराव परमार्थ प्रमुख थे। 1930 मंे जब डा. साहब ने जंगल सत्याग्रह में भाग लिया, तो दादाराव भी उनके साथ गये तथा अकोला जेल में रहे।

दादाराव बहुत उग्र स्वभाव के थे। दाँत बाहर निकले होने के कारण उनकी सूरत भी कुछ अच्छी नहीं थी; पर उनके भाषण बहुत प्रभावी होते थे। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। भाषण देते समय वे थोड़ी देर में ही उत्तेजित हो जाते थे और अंग्रेजी बोलने लगते थे। दादाराव को संघ की शाखाएँ प्रारम्भ करने हेतु मद्रास, केरल, पंजाब आदि कई स्थानों पर भेजा गया।

डा. हेडगेवार के प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा थी। कानपुर में एक बार शाखा पर डा. जी के जीवन के बारे में उनका भाषण था। इसके बाद उन्हें अगले स्थान पर जाने के लिए रेल पकड़नी थी; पर वे बोलते हुए इतने तल्लीन हो गये कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। परिणामस्वरूप रेल छूट गयी।

1963 में बरेली के संघ शिक्षा वर्ग में रात्रि कार्यक्रम में डा. जी के बारे में दादाराव को बोलना था। कार्यक्रम का समय सीमित था। अतः वे एक घण्टे बाद बैठ गये; पर उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रज्जू भैया उस समय प्रान्त प्रचारक थे। दो बजे उनकी नींद खुली, तो देखा दादाराव टहल रहे हैं। पूछने पर वे बोले - तुमने डा. जी की याद दिला दी। ऐसा लगता है मानो बाँध टूट गया है और अब वह थमने का नाम नहीं ले रहा। फिर कभी मुझे रात में इस बारे में बोलने को मत कहना।

दादाराव अनुशासन के बारे में बहुत कठोर थे। स्वयं को कितना भी कष्ट हो; पर निर्धारित काम होना ही चाहिए। वे प्रचारकों को भी कभी-कभी दण्ड दे देते थे; पर अन्तर्मन से वे बहुत कोमल थे। 1963 में सोनीपत संघ शिक्षा वर्ग से लौटकर वे दिल्ली कार्यालय पर आये। वहीं उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया। इलाज के बावजूद 27 जून, 1963 को उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया।

विद्या भारती के स्तम्भ लज्जाराम तोमर

भारत में लाखों सरकारी एवं निजी विद्यालय हैं; पर शासकीय सहायता के बिना स्थानीय हिन्दू जनता के सहयोग एवं विश्वास के बल पर काम करने वाली संस्था ‘विद्या भारती’ सबसे बड़ी शिक्षा संस्था है। इसे देशव्यापी बनाने में जिनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा, वे थे 21 जुलाई, 1930 को गांव वघपुरा (मुरैना, म.प्र.) में जन्मे श्री लज्जाराम तोमर।

लज्जाराम जी के परिवार की उस क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। मेधावी छात्र होने के कारण सभी परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने1957 में एम.ए तथा बी.एड किया। उनकी अधिकांश शिक्षा आगरा में हुई। 1945 में वे संघ के सम्पर्क में आयेे। उस समय उ.प्र. के प्रांत प्रचारक थे श्री भाउराव देवरस। अपनी पारखी दृष्टि से वे लोगों को तुरंत पहचान जाते थे। लज्जाराम जी पर भी उनकी दृष्टि थी। अब तक वे आगरा में एक इंटर कालिज में प्राध्यापक हो चुके थे। उनकी गृहस्थी भी भली प्रकार चल रही थी।

लज्जाराम जी इंटर कालिज में और उच्च पद पर पहुंच सकते थे; पर भाउराव के आग्रह पर वे सरकारी नौकरी छोड़कर सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आ गये। यहां शिक्षा संबंधी उनकी कल्पनाओं के पूरा होने के भरपूर अवसर थे। उन्होंने अनेक नये प्रयोग किये, जिसकी ओर विद्या भारती के साथ ही अन्य सरकारी व निजी विद्यालयों के प्राचार्य तथा प्रबंधक भी आकृष्ट हुए। आपातकाल के विरोध में उन्होंने जेल यात्रा भी की।

इन्हीं दिनों उनके एकमात्र पुत्र के देहांत से उनका मन विचलित हो गया। वे छात्र जीवन से ही योग, प्राणायाम, ध्यान और साधना करते थे। अतः इस मानसिक उथल-पुथल में वे संन्यास लेने पर विचार करने लगे; पर भाउराव देवरस उनकी अन्तर्निहित क्षमताओं को जानते थे। उन्होंने उनके विचारों की दिशा बदल कर उसे समाजोन्मुख कर दिया। उनके आग्रह पर लज्जाराम जी ने संन्यास के बदले अपना शेष जीवन शिक्षा विस्तार के लिए समर्पित कर दिया।

उस समय तक पूरे देश में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से हजारों विद्यालय खुल चुके थे; पर उनका कोई राष्ट्रीय संजाल नहीं था। 1979 में सब विद्यालयों को एक सूत्र में पिरोने के लिए ‘विद्या भारती’ का गठन किया गया और लज्जाराम जी को उसका राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनाया गया। उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का व्यापक अनुभव तो था ही। इस दायित्व के बाद पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। जिन प्रदेशों में विद्या भारती का काम नहीं था, उनके प्रवास से वहां भी इस संस्था ने जड़ें जमा लीं।

विद्या भारती की प्रगति को देखकर विदेश के लोग भी इस ओर आकृष्ट हुए। अतः उन्हें अनेक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में आमन्त्रित किया गया। उन्होंने भारतीय चिंतन के आधार पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें भारतीय शिक्षा के मूल तत्व, प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति, विद्या भारती की चिंतन दिशा, नैतिक शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार आदि प्रमुख हैं।

उनके कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया। कुरुक्षेत्र के गीता विद्यालय परिसर में उन्होंने संस्कृति संग्रहालय की स्थापना कराई; पर इसी बीच वे कैंसर से पीड़ित हो गये। समुचित चिकित्सा के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। 17 नवम्बर, 2004 को विद्या भारती के निराला नगर, लखनऊ स्थित परिसर में उनका शरीरांत हुआ। उनकी अंतिम इच्छानुसार उनका दाह संस्कार उनके पैतृक गांव में ही किया गया।

गोवा के स्वाधीनता सेनानी : राजाभाऊ महाकाल

1948 के प्रतिबन्धकाल में सरसंघचालक श्री गुरुजी से किसी ने भगवा ध्वज और तिरंगे झंडे के संबंध के बारे में पूछा। उन्होंने कहा कि भगवे की तरह तिरंगे झंडे के लिए भी स्वयंसेवक अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे। श्री नारायण बलवन्त (राजाभाऊ) महाकाल ने उनकी बात को सत्य कर दिखाया।

राजाभाऊ का जन्म भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन (म.प्र.) में महाकाल मंदिर के पुजारी परिवार में 26 जनवरी, 1923 को हुआ था। उज्जैन में प्रचारक रहे श्री दिगम्बर राव तिजारे के संपर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने और उन्हीं की प्रेरणा से 1942 में प्रचारक जीवन स्वीकार किया।

सर्वप्रथम उन्हें सोनकच्छ तहसील में भेजा गया। वे संघर्षप्रिय तो थे ही; पर समस्याओं में से मार्ग निकालने की सूझबूझ भी रखते थे। सोनकच्छ तहसील के गांव पीपलरवां में एक बार मुसलमानों ने उपद्रव किया। वहां कुनबी जाति के हिन्दुओं की बस्ती में शाखा लगती थी। राजाभाऊ ने वहां जाना चाहा, तो पुलिस ने जाने नहीं दिया। इस पर राजाभाऊ रात के अंधेरे में महिलाओं के वस्त्र पहनकर वहां गये और रात में ही वापस लौट आये। उनके पहुंचने से हिन्दुओं का उत्साह बढ़ गया और फिर मुसलमान अधिक उपद्रव नहीं कर सके।

1948 के प्रतिबन्ध काल में अनेक प्रचारक घर वापस लौट गये; पर राजाभाऊ ने बाबासाहब के साथ सोनकच्छ में एक होटल खोल दिया। इससे भोजन की समस्या हल हो गयी। घूमने-फिरने के लिए पैसा मिलने लगा और होटल कार्यकर्ताओं के मिलने का एक ठिकाना भी बन गया। प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद उन्होंने फिर से प्रचारक की तरह पूर्ववत कार्य प्रारम्भ कर दिया।

1955 में गोवा की मुक्ति के लिए आंदोलन प्रारम्भ होने पर देश भर से स्वयंसेवक इसके लिए गोवा गये। उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व राजाभाऊ ने किया। 14 अगस्त की रात में लगभग 400सत्याग्रही सीमा पर पहुंच गये। योजनानुसार 15 अगस्त को प्रातः दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण प्रारम्भ होते ही सीमा से सत्याग्रहियों का कूच होने लगा। सबसे पहले श्री बसंतराव ओक और उनके पीछे चार-चार की संख्या में सत्याग्रही सीमा पार करने लगे। लगभग दो कि.मी चलने पर सामने सीमा चौकी आ गयी।

यह देखकर सत्याग्रहियों का उत्साह दुगना हो गया। बंदूकधारी पुर्तगाली सैनिकों ने चेतावनी दी; पर सत्याग्रही नहीं रुकेे। राजाभाऊ तिरंगा झंडा लेकर जत्थे में सबसे आगे थे। सबसे पहले बसंतराव ओक के पैर में गोली लगी। फिर पंजाब के हरनाम सिंह के सीने पर गोली लगी और वे गिर पड़े। इस पर भी राजाभाऊ बढ़ते रहे। अतः सैनिकों ने उनके सिर पर गोली मारी। इससे राजाभाऊ की आंख और सिर से रक्त के फव्वारे छूटने लगे और वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। साथ के स्वयंसेवकों ने तिरंगे को संभाला और उन्हें वहां से हटाकर तत्काल चिकित्सालय में भर्ती कराया। उन्हें जब भी होश आता, वे पूछते कि सत्याग्रह कैसा चल रहा है; अन्य साथी कैसे हैं; गोवा स्वतन्त्र हुआ या नहीं?

चिकित्सकों के प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। राजाभाऊ तथा अन्य बलिदानियों के शव पुणे लाये गये। वहीं उनका अंतिम संस्कार होना था। प्रशासन ने धारा 144 लगा दी; पर जनता सब प्रतिबन्धों को तोड़कर सड़कों पर उमड़ पड़ी। राजाभाऊ के मित्र शिवप्रसाद कोठारी ने उन्हें मुखाग्नि दी। उनकी अस्थियां जब उज्जैन आयीं, तो नगरवासियों ने हाथी पर उनका चित्र तथा बग्घी में अस्थिकलश रखकर भव्य शोभायात्रा निकाली। बंदूकों की गड़गड़ाहट के बाद उन अस्थियों को पवित्र क्षिप्रा नदी में विसर्जित कर दिया गया।

प्रथम प्रचारक : बाबासाहब आप्टे


28 अगस्त, 1903 को यवतमाल, महाराष्ट्र के एक निर्धन परिवार में जन्मे उमाकान्त केशव आप्टे का प्रारम्भिक जीवन बड़ी कठिनाइयों में बीता। 16 वर्ष की छोटी अवस्था में पिता का देहान्त होने से परिवार की सारी जिम्मेदारी इन पर ही आ गयी।
इन्हें पुस्तक पढ़ने का बहुत शौक था। आठ वर्ष की अवस्था में इनके मामा ‘ईसप की कथाएँ’ नामक पुस्तक लेकर आये। उमाकान्त देर रात तक उसे पढ़ता रहा। केवल चार घण्टे सोकर उसने फिर पढ़ना शुरू कर दिया। मामा जी अगले दिन वापस जाने वाले थे। अतः उमाकान्त खाना-पीना भूलकर पढ़ने में लगे रहे। खाने के लिए माँ के बुलाने पर भी वह नहीं आया, तो पिताजी छड़ी लेकर आ गये। इस पर उमाकान्त अपनी पीठ उघाड़कर बैठ गया। बोला - आप चाहे जितना मार लें; पर इसेे पढ़े बिना मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा। उसके हठ के सामने सबको झुकना पड़ा।

छात्र जीवन में वे लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। एक बार तिलक जी रेल से उधर से गुजरने वाले थे। प्रधानाचार्य नहीं चाहते थे कि विद्यार्थी उनके दर्शन करने जाएँ। अतः उन्होंने फाटक बन्द करा दिया। विद्यालय का समय समाप्त होने पर उमाकान्त ने जाना चाहा; पर अध्यापक ने जाने नहीं दिया। जिद करने पर अध्यापक ने छड़ी से उनकी पिटाई कर दी।
इसी बीच रेल चली गयी। अब अध्यापक ने सबको छोड़ दिया। उमाकान्त ने गुस्से में कहा कि आपने भले ही मुझे नहीं जाने दिया; पर मैंने मन ही मन तिलक जी के दर्शन कर लिये हैं और उनके आदेशानुसार अपना पूरा जीवन देश को अर्पित करने का निश्चय भी कर लिया है। अध्यापक अपना सिर पीटकर रह गये।
मैट्रिक करने के बाद घर की स्थिति को देखकर उन्होंने कुछ समय धामण गाँव में अध्यापन कार्य किया; पर पढ़ाते समय वे हर घटना को राष्ट्रवादी पुट देते रहते थे। एक बार उन्होंने विद्यालय में तिलक जयन्ती मनाई। इससे प्रधानाचार्य बहुत नाराज हुए। इस पर आप्टे जी ने त्यागपत्र दे दिया तथा नागपुर आकर एक प्रेस में काम करने लगे। इसी समय उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ। बस फिर क्या था, आप्टे जी क्रमशः संघ के लिए समर्पित होते चले गये।
पुस्तकों के प्रति उनकी लगन के कारण डा. हेडगेवार उन्हें ‘अक्षर शत्रु’ कहते थे। आप्टे जी ने हाथ से लिखकर दासबोध तथा टाइप कर वीर सावरकर की प्रतिबन्धित पुस्तक ‘सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम’ अनेक नवयुवकों को पढ़ने को उपलब्ध करायीं। उन्होंने अनेक स्थानों पर नौकरी की; पर नौकरी के अतिरिक्त शेष समय वे संघ कार्य में लगाते थे।

संघ कार्य के लिए अब उन्हें नागपुर से बाहर भी प्रवास करना पड़ता था। अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पूरा समय संघ के लिए लगाने लगे। इस प्रकार वे संघ के प्रथम प्रचारक बने। आगे चलकर डा0 जी उन्हें देश के अन्य भागों में भी भेजने लगे। इस प्रकार वे संघ के अघोषित प्रचार प्रमुख हो गये।
उनकी अध्ययनशीलता, परिश्रम, स्वाभाविक प्रौढ़ता तथा बातचीत की निराली शैली के कारण डा. जी ने उन्हें ‘बाबासाहब’ नाम दिया था। दशावतार जैसी प्राचीन कथाओं को आधुनिक सन्दर्भों में सुनाने की उनकी शैली अद्भुत थी। संघ में अनेक दायित्वों को निभाते हुए बाबासाहब आप्टे 27 जुलाई, 1972 (गुरुपूर्णिमा) को दिवंगत हो गये।

दक्षिण के सेनापति यादवराव जोशी
दक्षिण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने वाले श्री यादव कृष्ण जोशी का जन्म अनंत चतुर्दशी (3 सितम्बर, 1914) को नागपुर के एक वेदपाठी परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता के एकमात्र पुत्र थे। उनके पिता श्री कृष्ण गोविन्द जोशी एक साधारण पुजारी थे। अतः यादवराव को बालपन से ही संघर्ष एवं अभावों भरा जीवन बिताने की आदत हो गयी।

यादवराव का डा. हेडगेवार से बहुत निकट सम्बन्ध थे। वे डा. जी के घर पर ही रहते थे। एक बार डा. जी बहुत उदास मन से मोहिते के बाड़े की शाखा पर आये। उन्होंने सबको एकत्र कर कहा कि ब्रिटिश शासन ने वीर सावरकर की नजरबन्दी दो वर्ष के लिए बढ़ा दी है। अतः सब लोग तुरन्त प्रार्थना कर शांत रहते हुए घर जाएंगे। इस घटना का यादवराव के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे पूरी तरह डा. जी के भक्त बन गये।

यादवराव एक श्रेष्ठ शास्त्रीय गायक थे। उन्हें संगीत का ‘बाल भास्कर’ कहा जाता था। उनके संगीत गुरू श्री शंकरराव प्रवर्तक उन्हें प्यार से बुटली भट्ट (छोटू पंडित) कहते थे। डा. हेडगेवार की उनसे पहली भेंट 20 जनवरी, 1927 को एक संगीत कार्यक्रम में ही हुई थी।

वहां आये संगीत सम्राट सवाई गंधर्व ने उनके गायन की बहुत प्रशंसा की थी; पर फिर यादवराव ने संघ कार्य को ही जीवन का संगीत बना लिया। 1940 से संघ में संस्कृत प्रार्थना का चलन हुआ। इसका पहला गायन संघ शिक्षा वर्ग में यादवराव ने ही किया था। संघ के अनेक गीतों के स्वर भी उन्होंने बनाये थे।

एम.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर यादवराव को प्रचारक के नाते झांसी भेजा गया। वहां वे तीन-चार मास ही रहे कि डा. जी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः उन्हें डा. जी की देखभाल के लिए नागपुर बुला लिया गया।1941 में उन्हें कर्नाटक प्रांत प्रचारक बनाया गया।

इसके बाद वे दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अ.भा.बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख, सेवा प्रमुख तथा 1977 से 84 तक सह सरकार्यवाह रहे। दक्षिण में पुस्तक प्रकाशन, सेवा, संस्कृत प्रचार आदि के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। ‘राष्ट्रोत्थान साहित्य परिषद’ द्वारा ‘भारत भारती’ पुस्तक माला के अन्तर्गत बच्चों के लिए लगभग 500 छोटी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। यह बहुत लोकप्रिय प्रकल्प है।

छोटे कद वाले यादवराव का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। वे प्रातःकालीन अल्पाहार नहीं करते थे। भोजन में भी एक दाल या सब्जी ही लेते थे। कमीज और धोती उनका प्रिय वेष था; पर उनके भाषण मन-मस्तिष्क को झकझोर देते थे। एक राजनेता ने उनकी तुलना सेना के जनरल से की थी।

उनके नेतृत्व में कर्नाटक में कई बड़े कार्यक्रम हुए। 1948 तथा 62 में बंगलौर में क्रमशः आठ तथा दस हजार गणवेशधारी तरुणों का शिविर, 1972 में विशाल घोष शिविर, 1982 में बंगलौर में 23,000 संख्या का हिन्दू सम्मेलन, 1969 में उडुपी में वि.हि.परिषद का प्रथम प्रांतीय सम्मेलन, 1983 में धर्मस्थान में वि.हि.परिषद का द्वितीय प्रांतीय सम्मेलन, जिसमें 70,000 प्रतिनिधि तथा एक लाख पर्यवेक्षक शामिल हुए। विवेकानंद केन्द्र की स्थापना तथा मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद हुए जनजागरण में उनका योगदान उल्लेखनीय है।

1987-88 वे विदेश प्रवास पर गये। केन्या के एक समारोह में वहां के मेयर ने जब उन्हें आदरणीय अतिथि कहा, तो यादवराव बोले, मैं अतिथि नहीं आपका भाई हूं। उनका मत था कि भारतवासी जहां भी रहें, वहां की उन्नति में योगदान देना चाहिए। क्योंकि हिन्दू पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं।

जीवन के संध्याकाल में वे अस्थि कैंसर से पीड़ित हो गये। 20 अगस्त, 1992 को बंगलौर संघ कार्यालय में ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की।   

एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय

सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।

दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा,उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।

14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।

अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ।1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।

1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।

1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।

उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।

हिन्दू जागरण के सूत्रधार अशोक सिंहल

श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे श्री अशोक सिंहल संन्यासी भी थे और योद्धा भी; पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे।

उनका जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा (उ.प्र.) में हुआ। सात भाई और एक बहिन में वे चौथे स्थान पर थे। मूलतः यह परिवार ग्राम बिजौली (जिला अलीगढ़, उ.प्र.) का निवासी था। उनके पिता श्री महावीर जी शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे।

घर में संन्यासी तथा विद्वानों के आने के कारण बचपन से ही उनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। 1942 में प्रयाग में पढ़ते समय प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया। उन्होंने अशोक जी की मां विद्यावती जी को संघ की प्रार्थना सुनायी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने अशोक जी को शाखा जाने की अनुमति दे दी।

1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता सत्ता पाने की खुशी मना रहे थे; पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोक जी भी उन्हीं में से एक थे। इस माहौल को बदलने हेतु उन्होंने अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया।

बचपन से ही उनकी रुचि शास्त्रीय गायन में रही। संघ के सैकड़ों गीतों की लय उन्होंने बनायी। उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से धातुविज्ञान में अभियन्ता की उपाधि ली थी। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो वे सत्याग्रह कर जेल गये। वहां से आकर उन्होंने अंतिम परीक्षा दी और 1950 में प्रचारक बन गये।

प्रचारक के नाते वे गोरखपुर, प्रयाग, सहारनपुर और फिर मुख्यतः कानपुर रहे। सरसंघचालक श्री गुरुजी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। कानपुर में उनका सम्पर्क वेदों के प्रकांड विद्वान श्री रामचन्द्र तिवारी से हुआ। अशोक जी अपने जीवन में इन दोनों का विशेष प्रभाव मानते थे। 1975 के आपातकाल के दौरान वे इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे। 1977 में वे दिल्ली प्रांत (वर्तमान दिल्ली व हरियाणा) के प्रान्त प्रचारक बने।

1981 में डा. कर्णसिंह के नेतृत्व में दिल्ली में ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोक जी और संघ की थी। उसके बाद उन्हें ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की जिम्मेदारी दे दी गयी। एकात्मता रथ यात्रा, संस्कृति रक्षा निधि, रामजानकी रथयात्रा, रामशिला पूजन, रामज्योति आदि कार्यक्रमों से परिषद का नाम सर्वत्र फैल गया।

अब परिषद के काम में बजरंग दल, परावर्तन, गाय, गंगा, सेवा, संस्कृत, एकल विद्यालय आदि कई नये आयाम जोड़े गयेे। श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन ने तो देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा ही बदल दी। वे परिषद के 1982 से 86 तक संयुक्त महामंत्री, 1995 तक महामंत्री, 2005 तक कार्याध्यक्ष, 2011 तक अध्यक्ष और फिर संरक्षक रहे।

सन्तों को संगठित करना बहुत कठिन है; पर अशोक जी की विनम्रता से सभी पंथों के लाखों संत इस आंदोलन से जुड़े। इस दौरान कई बार उनके अयोध्या पहुंचने पर प्रतिबंध लगाये गये; पर वे हर बार प्रशासन को चकमा देकर वहां पहुंच जाते थे। उनकी संगठन और नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम था कि युवकों ने छह दिसम्बर, 1992 को राष्ट्रीय कलंक के प्रतीक बाबरी ढांचे को गिरा दिया। कार्य विस्तार के लिए वे सभी प्रमुख देशों में गये। अगस्त-सितम्बर, 2015 में भी वे इंग्लैंड, हालैंड और अमरीका के दौरे पर गये थे।

अशोक जी काफी समय से फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित थे। इसी के चलते 17 नवम्बर, 2015 को उनका निधन हुआ। वे प्रतिदिन परिषद कार्यालय में लगने वाली शाखा में आते थे। अंतिम दिनों में भी उनकी स्मृति बहुत अच्छी थी। वे आशावादी दृष्टिकोण से सदा काम को आगे बढ़ाने की बात करते रहते थे। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब अयोध्या में विश्व भर के हिन्दुओं की आकांक्षा के अनुरूप श्री रामजन्मभूमि मंदिर का निर्माण होगा।

संघनिष्ठ जीवन के प्रतीक सुरेशराव केतकर 



संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री सुरेश रामचंद्र केतकर का जन्म 28 सितम्बर, 1934 को महाराष्ट्र प्रान्त के पुणे नगर में हुआ था। उनका संघ जीवन भी पुणे से ही प्रारम्भ हुआ और वे वहां की शिवाजी मंदिर सायं शाखा के मुख्यशिक्षक बने। शरीर सौष्ठव एवं शारीरिक कार्यक्रमों के प्रति उनका शुरू से ही रुझान था। शाखा के कार्यक्रमों के साथ अन्य खेलकूद व शारीरिक गतिविधियों में भी उनकी बहुत रुचि थी। इस बारे में उनकी जानकारी भी काफी गहन होती थी।

बी.एस-सी. तथा बी.पीएड. करने के बाद वे एक वर्ष तक अध्यापक रहे और फिर उसे छोड़कर 1959 में प्रचारक बन गये। यह यात्रा क्रमशः सांगली जिला प्रचारक से प्रारम्भ होकर विभाग, प्रांत और क्षेत्र प्रचारक; तथा फिर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख, सह सरकार्यवाह, अ.भा.प्रचारक प्रमुख से लेकर केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य तक अविराम चलती रही। 1983 में पुणे की तलजाई पहाड़ियों पर हुए विशाल प्रांतीय शिविर तथा 1993 में लातूर में आये भूकम्प के बाद हुए सेवा कार्याें में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

सुरेशराव अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत जागरूक रहते थे। कठोर व्यायाम और संतुलित भोजन से वे सदा स्वस्थ बने रहे। गणवेश के अलावा उन्होंने पैरों में कभी मोजे नहीं पहनेे। पहाड़ी क्षेत्रों में सब स्वाभाविक रूप से गरम पाजामा पहनते हैं। अधिक ऊंचे स्थानों पर तो उसके नीचे एक दूसरा चुस्त ऊनी पाजामा भी पहना जाता है; पर सुरेशराव ने वहां भी सदा धोती और बिना मोजे के जूते ही प्रयोग किये। वे प्रायः रात का भोजन नहीं करते थे। इसके साथ ही वे गणेश चतुर्थी, एकादशी और मंगल के व्रत भी रखते थे।

सुरेशराव की कार्यशैली भाषण की बजाय निजी व्यवहार से दूसरों को सिखाने की थी। वे हर कार्यक्रम में समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते थे। इससे किसी को समयपालन की बात कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। जब कोई और कार्यकर्ता बैठक लेता या बौद्धिक देता था, तो वे बहुत वरिष्ठ होने पर भी सब श्रोताओं के साथ सामने जमीन पर ही बैठते थे। कई बार उनसे आग्रह किया गया कि वे मंच पर या नीचे ही कुरसी पर बैठें, पर वे नहीं माने।

सुरेशराव मूलतः शारीरिक विभाग के व्यक्ति थे। शारीरिक के प्रत्येक विषय की वे पूरी जानकारी रखते थे। केन्द्रीय जिम्मेदारियों पर रहने के बावजूद प्रशिक्षण वर्गों में गण लेने में वे कभी संकोच नहीं करते थे। संघ में जब नियुद्ध विषय शुरू हुआ, तो उसमें एकरूपता लाने के लिए 1982-83 में नागपुर में एक प्रशिक्षण वर्ग हुआ। प्रतिदिन आठ घंटे अभ्यास वाले उस वर्ग में सुरेशराव पूरे समय उपस्थित रहे। उनके भाषण भी सूत्रबद्ध, तर्कपूर्ण, सटीक, स्पष्ट और पूरी तरह विषय केन्द्रित होते थे। केन्द्रीय कार्यकर्ताओं पर संघ विचार के कई संगठनों की देखभाल की जिम्मेदारी भी रहती है। सुरेशराव ने इस नाते लम्बे समय तक भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ तथा संस्कार भारती जैसे बड़े धरातल वाले संगठनों की देखभाल की।

केन्द्रीय दायित्व पर रहते हुए कई वर्ष तक उनका केन्द्र लखनऊ रहा। यहां रहते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के प्रत्येक जिले का प्रवास किया। उ.प्र. जनसंख्या के हिसाब से देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां की राजनीतिक गतिविधियां सारे देश को प्रभावित करती हैं। अतः सुरेशराव को राज्य की सत्ता और भारतीय जनता पार्टी में चलने वाली गुटबाजी और उठापटक को भी झेलना पड़ा। उन्होंने यथासंभव इनके समाधान का प्रयास भी किया।

सुरेशराव कर्मठता और समर्पण के मूर्तिमान स्वरूप थे। वृद्धावस्था में जब उन्हें प्रवास में कष्ट होने लगा, तो वे सक्रिय जिम्मेदारियों से मुक्त हो गये। सोलापुर में विभाग प्रचारक रहते हुए उनके प्रयास से कुछ सेवाभावी चिकित्सकों ने लातूर जैसे अत्यन्त पिछड़े क्षेत्र में ‘विवेकानंद चिकित्सालय’ की स्थापना की थी। वहां पर ही 16 जुलाई, 2016 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

गृहस्थ प्रचारक भैया जी दाणी


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परम्परा में प्रचारक अविवाहित रहकर काम करते हैं; पर कुछ अपवाद भी होते हैं। ऐसे गृहस्थ प्रचारकों की परम्परा के जनक प्रभाकर बलवन्त दाणी का जन्म नौ अक्तूबर, 1907 को उमरेड, नागपुर में हुआ था। आगे चलकर ये भैया जी दाणी के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये अत्यन्त सम्पन्न पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पिता श्री बापू जी लोकमान्य तिलक के भक्त थे। अतः घर से ही देशप्रेम के बीज उनके मन में पड़ गये थे, जो आगे चलकर डा0 हेडगेवार के सम्पर्क में आकर पल्लवित पुष्पित हुए।

भैया जी ने मैट्रिक तक पढ़ाई नागपुर में की। इसके बाद डा0 हेडगेवार ने उन्हें पढ़ने के लिए काशी भिजवा दिया। वहाँ उन्होंने शाखा की स्थापना की। नागपुर के बाहर किसी अन्य प्रान्त में खुलने वाली यह पहली शाखा थी। इसी शाखा में काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर (श्री गुरुजी) भी आये, जो डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद सरसंघचालक बने।

काशी से लौटकर भैया जी ने नागपुर में वकालत की पढ़ाई की; पर संघ कार्य तथा घरेलू खेतीबाड़ी की देखभाल में ही सारा समय निकल जाने के कारण वे वकालत नहीं कर सके। विवाह के बाद भी उनका अधिकांश समय सामाजिक कामों में ही लगता था। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, हिन्दू महासभा आदि सभी दलों में उनके अच्छे सम्पर्क थे। वे काम में आने वाली बाधाओं को दूर करने तथा रूठे हुए कार्यकर्ताओं को मनाने में बड़े कुशल थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘मनों को जोड़ने वाला सेतु’ कहते थे। साण्डर्स वध के बाद क्रान्तिकारी राजगुरू भी काफी समय तक उनके फार्म हाउस में छिप कर रहे थे।

1942 में श्री गुरुजी ने सभी कार्यकर्ताओं से समय देने का आह्नान किया। इस पर भैया जी गृहस्थ होते हुए भी प्रचारक बने। उन्हें मध्यभारत भेजा गया। वहाँ वे 1945 तक रहे। इसके बाद उनकी कार्यकुशलता देखकर उन्हें सरकार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व दिया गया। 1945 से 1956 तक इस दायित्व का उन्होंने भली प्रकार निर्वाह किया।

संघ कार्य तथा देश के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण था। इसी काल में स्वतन्त्रता मिली और मातृभूमि का विभाजन हुआ। गान्धी जी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। प्रतिबन्ध हटने के बाद अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं ने संघ पर राजनीति में सक्रिय होने का दबाव डाला। देश में प्रथम आम चुनाव हुए। ऐसी अनेक समस्याओं और जटिलताओं को सरकार्यवाह भैया जी दाणी ने झेला।

गान्धी जी हत्या के बाद कांग्रेसी गुण्डों ने उमरेड स्थित उनके घर को लूट लिया। इस पर भी भैया जी स्थितप्रज्ञ की भाँति शान्त रहे। उन्हें अपने परिवार से अधिक श्री गुरुजी और संघ कार्य की चिन्ता थी। 1956 में पिताजी के देहान्त के बाद उन्हें घर की देखभाल के लिए कुछ अधिक समय देना पड़ा। अतः श्री एकनाथ रानाडे को सरकार्यवाह का दायित्व दिया गया। तब भी नागपुर के नरकेसरी प्रकाशन का काम उन पर ही रहा। 1962 से 1965 तक वे एक बार फिर सरकार्यवाह रहे; पर उनके खराब स्वास्थ्य को देखकर 1965 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने श्री बालासाहब देवरस को सरकार्यवाह चुना।

इसके बाद भी उनका प्रवास चलता रहा। 1965 में इन्दौर के संघ शिक्षा वर्ग में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 25 मई, 1965 को कार्यक्षेत्र में ही उस कर्मयोगी का देहान्त हो गया।

बहुमुखी कल्पनाओं के धनी मोरोपन्त पिंगले


संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री मोरोपन्त पिंगले को देखकर सब खिल उठते थे। उनके कार्यक्रम हास्य-प्रसंगों से भरपूर होती थीं; पर इसके साथ वे एक गहन चिन्तक और कुशल योजनाकार भी थे। संघ नेतृत्व द्वारा सौंपे गये हर काम को उन्होंने नई कल्पनाओं के आधार पर सर्वश्रेष्ठ ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

मोरेश्वर नीलकंठ पिंगले का जन्म 30 अक्तूबर, 1919 को हुआ था। वे बचपन में मेधावी होने के साथ ही बहुत चंचल एवं शरारती भी थे। 1930 में वे स्वयंसेवक तथा 1941 में नागपुर के मौरिस कॉलेज से बी.ए. कर प्रचारक बने। प्रारम्भ में उन्हें म.प्र. के खंडवा में सह विभाग प्रचारक बनाया गया। इसके बाद वे मध्यभारत के प्रांत प्रचारक तथा फिर महाराष्ट्र के सह प्रांत प्रचारक बने। क्रमशः पश्चिम क्षेत्र प्रचारक, अ.भा.शारीरिक प्रमुख, बौद्धिक प्रमुख, प्रचारक प्रमुख तथा सह सरकार्यवाह के बाद वे केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहेे।

मोरोपंत जी को समय-समय पर दिये गये विविध प्रवृत्ति के कामों के कारण अधिक याद किया जाता है। छत्रपति शिवाजी की 300वीं पुण्यतिथि पर रायगढ़ में भव्य कार्यक्रम, पूज्य डा. हेडगेवार की समाधि का निर्माण तथा उनके पैतृक गांव कुन्दकुर्ती (आंध्र प्रदेश) में उनके कुलदेवता के मंदिर की प्रतिष्ठापना, बाबासाहब आप्टे स्मारक समिति के अन्तर्गत विस्मृत इतिहास की खोज, वैदिक गणित तथा संस्कृत का प्रचार-प्रसार आदि उल्लेखनीय हैं।

आपातकाल में भूमिगत रहकर तानाशाही के विरुद्ध आंदोलन चलाने में मोरोपंत की बहुत बड़ी भूमिका थी। 1981 में मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद संघ ने हिन्दू जागरण की जो अनेक स्तरीय योजनाएं बनाईं, उसके मुख्य कल्पक और योजनाकार वही थे। इसके अन्तर्गत 'संस्कृति रक्षा निधि' का संग्रह तथा 'एकात्मता रथ यात्राओं' का सफल आयोजन हुआ।

'विश्व हिन्दू परिषद' के मार्गदर्शक होने के नाते उन्होंने 'श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन' को हिन्दू जागरण का मंत्र बना दिया। श्री रामजानकी रथ यात्रा, ताला खुलना, श्रीराम शिला पूजन, शिलान्यास, श्रीराम ज्योति, पादुका पूजन आदि कार्यक्रमों ने देश में धूम मचा दी। छह दिसम्बर, 1992 को बाबरी कलंक का परिमार्जन इसी का सुपरिणाम था।

गोवंश रक्षा के क्षेत्र में भी उनकी सोच बिल्कुल अनूठी थी। उनका मत था गाय की रक्षा किसान के घर में ही हो सकती है, गोशाला या पिंजरापोल में नहीं। गोबर एवं गोमूत्र भी गोदुग्ध जैसा ही उपयोगी पदार्थ है। यदि किसान को इनका मूल्य मिलने लगे, तो फिर कोई गोवंश को नहीं बेचेगा।

उनकी प्रेरणा से गोबर और गोमूत्र से साबुन, तेल, मंजन, कीटनाशक, फिनाइल, शैंपू, टाइल्स, मच्छर क्वाइल, दवाएं आदि सैकड़ों प्रकार के निर्माण प्रारम्भ हुए। येे मानव, पशु और खेती के लिए बहुउपयोगी हैं। अब तो गोबर और गोमूत्र से लगातार 24 घंटे जलने वाले बल्ब का भी सफल प्रयोग हो चुका है।

उनका मत था कि भूतकाल और भविष्य को जोड़ने वाला पुल वर्तमान है। अतः इस पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए। उन्होंने हर स्थान पर स्थानीय एवं क्षेत्रीय समस्याओं को समझकर कई संस्थाएं तथा प्रकल्प स्थापित किये। महाराष्ट्र सहकारी बैंक, साप्ताहिक विवेक, लघु उद्योग भारती, नाना पालकर स्मृति समिति, देवबांध (ठाणे) सेवा प्रकल्प, कलवा कुष्ठ रेाग निर्मूलन प्रकल्प, स्वाध्याय मंडल (किला पारडी) की पुनर्स्थापना आदि की नींव में मोरोपंत ही हैं।

मोरोपंत जी के जीवन में निराशा एवं हताशा का कोई स्थान नहीं था। वे सदा हंसते और हंसाते रहते थे। अपने कार्यों से नई पीढ़ी को दिशा देने वाले मोरोपंत पिंगले का 21 सितम्बर, 2003 को नागपुर में ही देहांत हुआ।

संघ समर्पित माधवराव मुले

7 नवम्बर, 1912 (कार्तिक कृष्ण 13, धनतेरस) को ग्राम ओझरखोल (जिला रत्नागिरी, महाराष्ट्र) में जन्मे माधवराव कोण्डोपन्त मुले प्राथमिक शिक्षा पूरी कर आगे पढ़ने के लिए 1923 में बड़ी बहन के पास नागपुर आ गये थे।
यहाँं उनका सम्पर्क संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ। मैट्रिक के बाद इन्होंने डिग्री कालिज में प्रवेश लिया; पर क्रान्तिकारियों से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ दी। इसी बीच पिताजी का देहान्त होने से घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी इन पर आ गयी। अतः इन्होंने टायर ट्यूब मरम्मत का काम सीखकर चिपलूण में यह कार्य किया; पर घाटा होने से उसे बन्द करना पड़ा।

इस बीच डा. हेडगेवार से परामर्श करने ये नागपुर आये। डा. जी इन्हें अपने साथ प्रवास पर ले गये। इस प्रवास के दौरान डा. जी के विचारों ने माधवराव के जीवन की दिशा बदल दी। चिपलूण आकर माधवराव ने दुकान किराये पर उठा दी और स्वयं पूरा समय संघ कार्य में लगाने लगे। 1937 में निजाम हैदराबाद के विरुद्ध हुए सत्याग्रह तथा 1938 में पुणे में सोना मारुति सत्याग्रह के दौरान वे जेल भी गये।

1939 में माधवराव प्रचारक बने। 1940 में उन्हें पंजाब भेजा गया। विभाजन की चर्चाओं के कारण वहाँ का वातावरण उन दिनों बहुत गरम था। ऐसे में हिन्दुओं में हिम्मत बनाये रखने तथा हर स्थिति की तैयारी रखने का कार्य उन्होंने किया। गाँव और नगरों में शाखाओं का जाल बिछ गया। माधवराव ने सरसंघचालक श्री गुरुजी का प्रवास सुदूर क्षेत्रों में कराया। इससे हिन्दुओं का मनोबल बढ़ा और वे हर स्थिति से निबटने की तैयारी करने लगे।

मुस्लिम षड्यन्त्रों की जानकारी लेने के लिए अनेक स्वयंसेवक मुस्लिम वेष में मस्जिदों और मुस्लिम लीग की बैठकों में जाने लगे। शस्त्र संग्रह एवं प्रशिक्षण का कार्य भी बहुत प्रभावी ढंग से हुआ। इससे विभाजन के बाद बड़ी संख्या में हिन्दू अपने प्राण बचाकर आ सके। आगे चलकर भारत में इनके पुनर्वास में भी माधवराव की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण रही।

देश के स्वतन्त्र होते ही धूर्त पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। माधवराव के निर्देश पर स्वयंसेवकों ने भारतीय सैनिकों के कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया। श्रीनगर हवाई अड्डे को स्वयंसेवकों ने ही दिन रात एक कर ठीक किया। इसी से वहाँ बड़े वायुयानों द्वारा सेना उतर सकी। अन्यथा आज पूरा कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में होता।

1959 में उन्हें क्षेत्र प्रचारक, 1970 में सहसरकार्यवाह तथा 1973 में सरकार्यवाह बनाया गया। 1975 में इन्दिरा गान्धी ने देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस जेल चले गये। ऐसे में लोकतन्त्र की रक्षार्थ हुए सत्याग्रह का स॰चालन माधवराव ने ही किया। एक लाख स्वयंसेवक जेल गये। इनके परिवारों को कोई कष्ट न हो, इस बात पर माधवराव का जोर बहुत रहता था। 1977 के लोकसभा चुनाव में इन्दिरा गान्धी पराजित हुई। संघ से भी प्रतिबन्ध हट गया।

यद्यपि माधवराव कभी विदेश नहीं गये; पर उन्होंने विदेशस्थ स्वयंसेवकों से सम्पर्क का तन्त्र विकसित किया। आज विश्व के 200 से भी अधिक देशों में संघ कार्य चल रहा है। इस भागदौड़ से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। 1978 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने रज्जू भैया को सरकार्यवाह चुना। मुम्बई में माधवराव की चिकित्सा प्रारम्भ हुई; पर हालत में सुधार नहीं हुआ। 30 सितम्बर 1978 को अस्पताल में ही उनका देहान्त हो गया।

राष्ट्रयोगी दत्तोपंत ठेंगड़ी

श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी का जन्म दीपावली वाले दिन (10 नवम्बर, 1920) को ग्राम आर्वी, जिला वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ था। वे बाल्यकाल से ही स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय रहे। 1935 में वे ‘वानरसेना’ के आर्वी तालुका के अध्यक्ष थे। जब उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से हुआ, तो संघ के विचार उनके मन में गहराई से बैठ गये।

उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे; पर दत्तोपन्त जी एम.ए. तथा कानून की शिक्षा पूर्णकर 1941 में प्रचारक बन गये। शुरू में उन्हें केरल भेजा गया। वहाँ उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ का काम भी किया। केरल के बाद उन्हें बंगाल और फिर असम भी भेजा गया।

श्री ठेंगड़ी ने संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के कहने पर मजदूर क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्होंने इण्टक, शेतकरी कामगार फेडरेशन जैसे संगठनों में जाकर काम सीखा। साम्यवादी विचार के खोखलेपन को वे जानते थे। अतः उन्होंने ‘भारतीय मजदूर संघ’ नामक अराजनीतिक संगठन शुरू किया, जो आज देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन है।

श्री ठेंगड़ी के प्रयास से श्रमिक और उद्योग जगत के नये रिश्ते शुरू हुए। कम्युनिस्टों के नारे थे ‘‘चाहे जो मजबूरी हो, माँग हमारी पूरी हो; दुनिया के मजदूरो एक हो; कमाने वाला खायेगा’’। मजदूर संघ ने कहा ‘‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम; मजदूरो दुनिया को एक करो; कमाने वाला खिलायेगा’’। इस सोच से मजदूर क्षेत्र का दृश्य बदल गया। अब 17 सितम्बर को श्रमिक दिवस के रूप में ‘विश्वकर्मा जयन्ती’ पूरे देश में मनाई जाती है। इससे पूर्व भारत में भी ‘मई दिवस’ ही मनाया जाता था।

श्री ठेंगड़ी 1951 से 1953 तक मध्य प्रदेश में 'भारतीय जनसंघ' के संगठन मन्त्री रहे; पर मजदूर क्षेत्र में आने के बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी। 1964 से 1976 तक दो बार वे राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्होंने विश्व के अनेक देशों का प्रवास किया। वे हर स्थान पर मजदूर आन्दोलन के साथ-साथ वहाँ की सामाजिक स्थिति का अध्ययन भी करते थे। इसी कारण चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देश भी उनसे श्रमिक समस्याओं पर परामर्श करते थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण म॰च, भारतीय किसान संघ, सामाजिक समरसता मंच आदि की स्थापना में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही।

26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगने पर ठेंगड़ी जी ने भूमिगत रहकर ‘लोक संघर्ष समिति’ के सचिव के नाते तानाशाही विरोधी आन्दोलन को संचालित किया। जनता पार्टी की सरकार बनने पर जब अन्य नेता कुर्सियों के लिए लड़ रहे थे; तब ठेंगड़ी जी ने मजदूर क्षेत्र में काम करना ही पसन्द किया।

2002 में राजग शासन द्वारा दिये जा रहे 'पद्मभूषण' अलंकरण को उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि जब तक संघ के संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी को 'भारत रत्न' नहीं मिलता, तब तक वे कोई अलंकरण स्वीकार नहीं करेंगे। मजदूर संघ का काम बढ़ने पर लोग प्रायः उनकी जय के नारे लगा देते थे। इस पर उन्होंने यह नियम बनवाया कि कार्यक्रमों में केवल भारत माता और भारतीय मजदूर संघ की ही जय बोली जाएगी।

14 अक्तूबर, 2004 को उनका देहान्त हुआ। श्री ठेंगड़ी अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने हिन्दी में 28, अंग्रेजी में 12 तथा मराठी में तीन पुस्तकें लिखीं। इनमें लक्ष्य और कार्य, एकात्म मानवदर्शन, ध्येयपथ, बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर, सप्तक्रम, हमारा अधिष्ठान, राष्ट्रीय श्रम दिवस, कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर, संकेत रेखा, राष्ट्र, थर्ड वे आदि प्रमुख हैं।

विवेकानंद शिला स्मारक के शिल्पी एकनाथ रानडे

एकनाथ रानडे का जन्म 19 नवम्बर, 1914 को ग्राम टिलटिला (जिला अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। पढ़ने के लिए वे अपने बड़े भाई के पास नागपुर आ गये। वहीं उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से हुआ। वे बचपन से ही बहुत प्रतिभावान एवं शरारती थे। कई बार शरारतों के कारण उन्हें शाखा से निकाला गया; पर वे फिर जिदपूर्वक शाखा में शामिल हो जाते थे। इस स्वभाव के कारण वे जिस काम में हाथ डालते, उसे पूरा करके ही दम लेते थे।

मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के पास जाकर प्रचारक बनने की इच्छा व्यक्त की; पर डा. जी ने उन्हें और पढ़ने को कहा। अतः 1936 में स्नातक बनकर वे प्रचारक बने। प्रारम्भ में उन्हें नागपुर के आसपास का और 1938 में महाकौशल का कार्य सौंपा गया। 1945 में वे पूरे मध्य प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने।

1948 में गान्धी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। संघ के सभी प्रमुख अधिकारी पकड़े गये। ऐसे में देशव्यापी सत्याग्रह की जिम्मेदारी एकनाथ जी को दी गयी। उन्होंने भूमिगत रहकर पूरे देश में प्रवास किया, जिससे 80,000 स्वयंसेवकों ने उस दौरान सत्याग्रह किया। एकनाथ जी ने संघ और शासन के बीच वार्ता के लिए मौलिचन्द्र शर्मा तथा द्वारका प्रसाद मिश्र जैसे प्रभावशाली लोगों को तैयार किया। इससे सरकार को सच्चाई समझ में आयी और प्रतिबन्ध हटा लिया गया।

इसके बाद वे एक साल दिल्ली रहे। 1950 में उन्हें पूर्वोत्तर भारत का काम दिया गया। 1953 से 56 तक वे संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख और 1956 से 62 तक सरकार्यवाह रहे। इस काल में उन्होंने संघ कार्य तथा स्वयंसेवकों द्वारा स॰चालित विविध संगठनों को सुव्यवस्था प्रदान की। प्रतिबन्ध काल में संघ पर बहुत कर्ज चढ़ गया था। एकनाथ जी ने श्री गुरुजी की 51वीं वर्षगाँठ पर श्रद्धानिधि संकलन कर उस संकट से संघ को उबारा।

1962 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। 1963 में स्वामी विवेकानन्द की जन्म शताब्दी मनायी गयी। इसी समय कन्याकुमारी में जिस शिला पर बैठकर स्वामी जी ने ध्यान किया था, वहाँ स्मारक बनाने का निर्णय कर श्री एकनाथ जी को यह कार्य सौंपा गया। दक्षिण में ईसाइयों का काम बहुत बढ़ रहा था। उन्होंने तथा राज्य और केन्द्र सरकार ने इस कार्य में बहुत रोड़े अटकाये; पर एकनाथ जी ने हर समस्या का धैर्यपूर्वक समाधान निकाला।

इसके स्मारक के लिए बहुत धन चाहिए था। विवेकानन्द युवाओं के आदर्श हैं, इस आधार पर एकनाथ जी ने जो योजना बनायी, उससे देश भर के विद्यालयों, छात्रों, राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों और धनपतियों ने इसके लिए पैसा दिया। इस प्रकार सबके सहयोग से बने स्मारक का उद्घाटन 1970 में उन्होंने राष्ट्रपति श्री वराहगिरि वेंकटगिरि से कराया।

1972 में उन्होंने विवेकानन्द केन्द्र की गतिविधियों को सेवा की ओर मोड़ा। युवक एवं युवतियों को प्रशिक्षण देकर देश के वनवासी अ॰चलों में भेजा गया। यह कार्य आज भी जारी है। केन्द्र से अनेक पुस्तकों तथा पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन भी हुआ।

इस सारी दौड़धूप से उनका शरीर जर्जर हो गया। 22 अगस्त 1982 को मद्रास में भारी हृदयाघात से उनका देहान्त हो गया। कन्याकुमारी में बना स्मारक स्वामी विवेकानन्द के साथ श्री एकनाथ रानडे की कीर्त्ति का भी सदा गान करता रहेगा।


उ.प्र. में संघ कार्य के सूत्रधार भाऊराव देवरस

उ.प्र. में यों तो संघ की शाखा सर्वप्रथम काशी में भैयाजी दाणी द्वारा प्रारम्भ की गयी थी; पर संघ के काम को हर जिले तक फैलाने का श्रेय श्री मुरलीधर दत्तात्रेय (भाऊराव) देवरस को है। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 (देवोत्थान एकादशी) को नागपुर के इतवारी मोहल्ले के निवासी एक सरकारी कर्मचारी श्री दत्तात्रेय देवरस के घर में हुआ था। वे पांच भाई थे तथा उनसे दो वर्ष बड़े श्री मधुकर दत्तात्रेय (बालासाहब) देवरस भी संघ के प्रचारक बनकर अनेक दायित्व निभाते हुए संघ के तीसरे सरसंघचालक बने।

उन दोनों भाइयों की जोड़ी बाल-भाऊ के नाम से प्रसिद्ध थी। संघ की स्थापना होने पर पहले बाल और फिर 1927-28 में भाऊ भी शाखा जाने लगे। डा. हेडगेवार के घर में खूब आना-जाना होने से दोनों संघ और उसके विचारों से एकरूप हो गये। 1937 में भाऊराव ने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। अब डा. हेडगेवार ने उन्हें उ.प्र. में जाने को कहा। अतः भाऊराव ने लखनऊ वि.वि. में बी.काॅम तथा एल.एल.बी. में प्रवेश ले लिया। उन दिनों वहां दो वर्ष में डबल पोस्ट डिग्री पाठ्यक्रम की सुविधा थी। भाऊराव ने दोनों विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किये। लखनऊ में वे संघ के साथ स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। उनके प्रयास से वहां सुभाष चंद्र बोस का एक भव्य कार्यक्रम हुआ था।

भाऊराव के घर की स्थिति बहुत सामान्य थी। वे अब आसानी से कहीं भी डिग्री काॅलेज में प्राध्यापक बन सकते थे; पर उन्हें तो उ.प्र. में संघ का काम खड़ा करना था। अतः वे यहीं डट गये। एम.एस-सी. के छात्र बापूराव मोघे भी उनके साथ थे। घर वालों ने पैसे भेजना बंद कर दिया था। अतः ट्यूशन पढ़ाकर तथा एक समय भोजन कर वे दोनों शाखा विस्तार में लगे रहे।

उन दिनों नागपुर में श्री मार्तंडराव जोग का गुब्बारे बनाने का कारखाना था। भाऊराव ने लखनऊ में गुब्बारे बेचकर कुछ धन का प्रबन्ध करने का प्रयास किया; पर यह योजना सफल नहीं हुई। 1941 में उन्होंने काशी को अपना केन्द्र बना लिया। क्योंकि वहां काशी हिन्दू वि.वि. में पढ़ने के लिए देश भर से छात्र आते थे। वहां श्री दत्तराज कालिया की हवेली में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। यद्यपि उनका पूरा दिन छात्रावासों में ही बीतता था। उन छात्रों के बलपर क्रमशः उ.प्र. के कई जिलों में शाखाएं खुल गयीं। श्री दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, रज्जू भैया जैसे श्रेष्ठ छात्र उन दिनों उनके संपर्क में आये, जो फिर संघ और अन्य अनेक कामों में शीर्षस्थ स्थानों पर पहुंचे।

उ.प्र. में संघ कार्य करते हुए भाऊराव का ध्यान और भी कई दिशाओं में रहता था। इसी के परिणामस्वरूप 1947 में लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई। जिसके माध्यम से राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक तथा तरुण भारत जैसे दैनिक पत्र प्रारम्भ हुए। आज ‘विद्या भारती’ के नाम से देश भर में लगभग एक लाख विद्यालयों का जो संजाल है, उसकी नींव 1952 में गोरखपुर में 'सरस्वती शिशु मंदिर' के माध्यम से रखी गयी थी।

उ.प्र. में संघ कार्य को दृढ़ करने के बाद भाऊराव क्रमशः बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक तथा फिर सह सरकार्यवाह बनाये गये। इन दायित्वों पर रहते हुए उन्होंने पूरे देश में प्रवास किया। फिर उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। यहां रहते हुए वे विद्या भारती तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे कामों की देखरेख करते रहे। व्यक्ति पहचानने की अद्भुत क्षमता के कारण उन्होंने जिस कार्यकर्ता को जिस काम में लगाया, वह उस क्षेत्र में यशस्वी सिद्ध हुआ।

धीरे-धीरे उनका शरीर थकने लगा। फिर भी उनकी मानसिक जागरूकता बनी रही। 13 मई, 1992 को दिल्ली में ही उनका देहांत हुआ। आज संघ और स्वयंसेवकों द्वारा संचालित अनेक कार्यों में उ.प्र. के कार्यकर्ता प्रमुख स्थानों पर हैं। इसका श्रेय निःसंदेह भाऊराव और उनकी अविश्रांत साधना को ही है।

सरसंघचालकों की छाया डा. आबाजी थत्ते

सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस के प्रवास में उनकी छाया की तरह साथ रहने वाले डा. वासुदेव केशव (आबाजी) थत्ते का जन्म 24 नवम्बर, 1918 को हुआ था। उनका पालन स्टेट बैंक में कार्यरत उनके बड़े भाई अप्पा जी और भाभी वाहिनी थत्ते ने अपने पुत्र की तरह किया। 1939 में बड़े भाई की प्रेरणा से वे मुंबई की प्रसिद्ध शिवाजी पार्क शाखा में जाने लगे।

मुंबई से एम.बी.बी.एस. पूर्ण कर आबाजी ने प्रचारक बनने का संकल्प लिया। अतः 1944-45 में श्री बालासाहब देवरस ने उन्हें नागपुर बुला लिया। वस्तुतः बालासाहब के मन में उनके बारे में कुछ और योजना थी। अतः सर्वप्रथम उन्हें बड़कस चौक में डा. पांडे के साथ चिकित्सा कार्य करने को कहा गया।

बालासाहब चाहते थे कि श्री गुरुजी के साथ कोई कार्यकर्ता सदा रहे। अतः पहले उन्होंने आबाजी को पर्याप्त चिकित्सा का अनुभव लेने दिया। इसके बाद उन्हें शाखा विस्तार के लिए बंगाल में शिवपुर भेजा गया। उन दिनों बंगाल में संघ का काम नया था। अतः महाराष्ट्र से ही वहां प्रचारक भेजे जाते थे; पर आबाजी के प्रयास से शिवपुर से स्थानीय प्रचारक भी निकलने लगे।

1950 में संघ से प्रतिबन्ध हटने के बाद बालासाहब ने आबाजी को श्री गुरुजी के साथ रहने को कहा। इस दायित्व को निभाते हुए आबाजी ने पहले श्री गुरुजी और फिर बालासाहब के साथ लम्बे समय तक प्रवास किया। आबाजी ने इस दौरान न जाने कितने महत्वपूर्ण प्रसंग देखे और सुने; पर इनको उन्होंने कभी व्यक्त नहीं किया। श्री गुरुजी के निधन के बाद जब बालासाहब ने प्रवास प्रारम्भ किया, तो आबाजी ने उनके साथ रहते हुए एक कड़ी की भूमिका निभाई और देश भर में प्रमुख कार्यकर्ताओं से उन्हें मिलवाया।

श्री गुरुजी के साथ आबाजी सभी जगह जाते थे। अतः वे दोनों इतने एकरूप हो गये थे कि यदि किसी समारोह में किसी कारण से गुरुजी नहीं पहुंच सके और आबाजी पहुंच गये, तो गुरुजी की उपस्थिति मान ली जाती थी। बालासाहब के देहांत के बाद उन्हें 'अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख' बनाया गया। इसके साथ ही ग्राहक पंचायत, सहकार भारती, राष्ट्र सेविका समिति तथा अन्य महिला संगठनों से समन्वय बनाने का काम भी उनके जिम्मे था।

आबाजी संपर्क करने में कुशल थे तथा काम के व्यस्तता में से समय निकालकर नागपुर के कार्यकर्ताओं से मिलते रहते थे। अपने संपर्कों को जीवन्त बनाये रखने के लिए वे प्रवास के दौरान लगातार पत्र-व्यवहार भी करते रहते थे। आपातकाल के बाद जब संघ विचार की अनेक संस्थाओं को देशव्यापी रूप दिया गया, तो आबाजी के इन संपर्कों का बहुत उपयोग हुआ।

श्री गुरुजी के देहांत के बाद उन पर कई पुस्तकें लिखी गयीं। जब आबाजी से भी इसका आग्रह किया गया, तो उन्होंने कहा कि श्रीराम के साथ हनुमान जी बहुत समय तक रहे; पर श्रीराम का चरित्र ऋषि वाल्मीकि ने लिखा, हनुमान ने नहीं। यह उत्तर उनके आत्मविलोपी व्यक्तित्व का परिचायक है।

आबाजी कभी-कभी डायरी लिखते थे। उसमें उन्होंने हाथ से श्री गुरुजी के अनेक चित्र भी बनाये थे। उन्होंने डायरी में एक स्थान पर लिखा था कि उत्तंुग ध्येय वाले कार्यकर्ता को विश्राम देने की सामर्थ्य तीन अक्षर के शब्द ‘मृत्यु’ में ही है। उन्होंने अपने कर्तत्व से इस श्रेष्ठ विचार को सत्य कर दिखाया और 27 नवम्बर, 1995 को चिर विश्रान्ति पर चले गये।

वनयोगी बालासाहब देशपाण्डे

श्री रमाकान्त केशव (बालासाहब) देशपांडे का जन्म अमरावती (महाराष्ट्र) में श्री केशव देशपांडे के घर में 26 दिसम्बर, 1913 को हुआ।

अमरावती, अकोला, सागर, नरसिंहपुर तथा नागपुर में पढ़ाई कर 1938 में वे राशन अधिकारी बन गये। एक बार उन्होंने एक व्यापारी को गलत काम करते हुए पकड़ लिया; पर बड़े अफसरों से मिलीभगत के कारण वह छूट गया। इससे बालासाहब का मन खट्टा हो गया और उन्होंने नौकरी छोड़कर अपने मामा श्री गंगाधरराव देवरस के साथ रामटेक में वकालत प्रारम्भ कर दी।

1926 में नागपुर की पन्त व्यायामशाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने। द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी से भी उनकी बहुत निकटता थी। उनकी ही तरह बालासाहब ने भी रामकृष्ण आश्रम से दीक्षा लेकर ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ का व्रत धारण किया था। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उन्होंने सक्रिय भाग लिया और जेल भी गये। 1943 में उनका विवाह प्रभावती जी से हुआ।

स्वाधीनता मिलने के बाद बालासाहब फिर से राज्य सरकार की नौकरी में आ गये। 1948 में उनकी नियुक्ति प्रसिद्ध समाजसेवी ठक्कर बापा की योजनानुसार मध्य प्रदेश के वनवासी बहुल जशपुर क्षेत्र में हुई। इस क्षेत्र में रहते हुए उन्होंने एक वर्ष में 123 विद्यालय तथा वनवासियों की आर्थिक उन्नति के अनेक प्रकल्प प्रारम्भ कराये। वहाँ उन्होंने भोले वनवासियों की अशिक्षा तथा निर्धनता का लाभ उठाकर ईसाई पादरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के षड्यन्त्रों को देखा। इससे वे व्यथित हो उठे।

नागपुर लौटकर उन्होंने सरसंघचालक श्री गुरुजी से इसकी चर्चा की। उनके परामर्श पर बालासाहब ने नौकरी से त्यागपत्र देकर जशपुर में वकालत प्रारम्भ की। पर वह तो एक माध्यम मात्र था, उनका उद्देश्य तो निर्धन व अशिक्षित वनवासियों की सेवा करना था। अतः 26 दिसम्बर, 1952 में उन्होंने जशपुर महाराजा श्री विजय सिंह जूदेव से प्राप्त भवन में एक विद्यालय एवं छात्रावास खोला। इस प्रकार ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य प्रारम्भ हुआ।

1954 में मुख्यमन्त्री श्री रविशंकर शुक्ल ने ईसाई मिशनरियों की देशघातक गतिविधियों की जाँच के लिए नियोगी आयोग का गठन किया। इस आयोग के सम्मुख बालासाहब ने 500 पृष्ठों में लिखित जानकारी प्रस्तुत की। इससे ईसाई संगठन उनसे बहुत नाराज हो गये; पर वे अपने काम में लगे रहे।

उनके योजनाबद्ध प्रयास तथा अथक परिश्रम से वनवासी क्षेत्र में शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, संस्कार, खेलकूद के प्रकल्प बढ़ने लगे। उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए भी अनेक केन्द्र बनाये। इससे सैकड़ों वनवासी युवक और युवतियां ही पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन कर काम करने लगे।

इस कार्य की ख्याति सुनकर 1977 में प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने जशपुर आकर इस कार्य को देखा। इससे प्रभावित होकर उन्होंने बालासाहब से सरकारी सहायता लेने का आग्रह किया; पर बालासाहब ने विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया। वे जनसहयोग से ही कार्य करने के पक्षधर थे।

1975 में आपातकाल लगने पर उन्हें 19 महीने के लिए 'मीसा' के अन्तर्गत रायपुर जेल में बन्द कर दिया गया; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। आपातकाल की समाप्ति पर 1978 में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य को राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया। आज पूरे देश में कल्याण आश्रम के हजारों प्रकल्प चल रहे हैं। बालासाहब ने 1993 में स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से सब दायित्वों से मुक्ति ले ली। उन्हें देश भर में अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया।

21 अपै्रल, 1995 को उनका देहान्त हुआ। एक वनयोगी एवं कर्मवीर के रूप में उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा।

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