Wednesday 20 September 2017

गोंड़ राजा शंकर शाह

गोंड़ राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह का बलिदान          
   18 सितम्बर/बलिदान-दिवस
#कविता_सुनाकर_मृत्यु_को_गले_लगाया

1857 ई0 में जबलपुर में तैनात अंग्रेजों की 52वीं रेजिमेण्ट का कमाण्डर क्लार्क बहुत क्रूर था। वह छोटे राजाओं, जमीदारों एवं जनता को बहुत परेशान करता था। यह देखकर गोण्डवाना (वर्तमान जबलपुर) के राजा शंकरशाह ने उसके अत्याचारों का विरोध करने का निर्णय लिया। राजा एवं राजकुमार दोनों अच्छे कवि थे। उन्होंने कविताओं द्वारा विद्रोह की आग पूरे राज्य में सुलगा दी। राजा ने एक भ्रष्ट कर्मचारी गिरधारीलाल दास को निष्कासित कर दिया था। वह क्लार्क को अंग्रेजी में इन कविताओं का अर्थ समझाता था।

क्लार्क समझ गया कि राजा किसी विशाल योजना पर काम रहा है। उसने हर ओर गुप्तचर तैनात कर दिये। कुछ गुप्तचर साधु वेश में महल में जाकर सारे भेद ले आये। उन्होंने क्लार्क को बता दिया कि दो दिन बाद छावनी पर हमला होने वाला है। क्लार्क ने आक्रमण ही सबसे अच्छी सुरक्षा (offence is the best defence) वाले नियमानुसार 14 सितम्बर को राजमहल को घेर लिया। राजा की तैयारी अभी अधूरी थी, अतः बिना किसी विशेष संघर्ष के राजा शंकरशाह और उनके 32 वर्षीय पुत्र रघुनाथ शाह बन्दी बना लिये गये।

क्लार्क उन्हें सार्वजनिक रूप से मृत्युदण्ड देकर जनता में आतंक फैलाना चाहता था। अतः 18 सितम्बर, 1858 को दोनों को अलग-अलग तोप के मुँह पर बाँध दिया गया। मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपनी प्रजा को एक-एक छन्द सुनाने चाहे। पहला छन्द राजा ने सुनाया।

मूँद मूख डण्डिन को चुगलों की चबाई खाई
खूब दौड़ दुष्टन को शत्रु संहारिका।
मार अंगरेज रेज कर देई मात चण्डी
बचे नाहिं बैरी बाल बच्चे संहारिका।
संकर की रक्षा कर दास प्रतिपाल कर
वीनती हमारी सुन अब मात पालिका।
खाई लेइ मलेच्छन को झेल नाहिं करो अब
भच्छन ततत्छन कर बैरिन कौ कालिका।।

दूसरा छन्द पुत्र ने और भी उच्च स्वर में सुनाया।

कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन
डार मुण्डमाल गरे खड्ग कर धर ले।
सत्य के प्रकासन औ असुर बिनासन कौ
भारत समर माँहि चण्डिके संवर ले।
झुण्ड-झुण्ड बैरिन के रुण्ड मुण्ड झारि-झारि
सोनित की धारन ते खप्पर तू भर ले।
कहै रघुनाथ माँ फिरंगिन को काटि-काटि
किलिक-किलिक माँ कलेऊ खूब कर ले।।

कविता पूरी होते ही जनता में राजा एवं राजकुमार की जय के नारे गूँज उठे। क्लार्क को लगा कि कहीं विद्रोह यहाँ पर ही न फूट पड़े। तोपची तो तैयार थे ही। संकेत मिलते ही मशाल लगाकर तोपें दाग दी गयीं। भीषण गर्जना के साथ चारों ओर धुआँ भर गया। महाराजा शंकर शाह और राजकुमार रघुनाथ शाह की हड्डियों और माँस के लोथेड़ों से आकाश भर गया।

जहाँ ये दोनों वीर बलिदान हुए, वहाँ वे दोनों तोपें आज भी खड़ी उनके साहस की गाथा कह रही हैं।
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