Tuesday 11 July 2017

फकीरी

एक बार एक राजा के दरबार में एक आदमी आया। वह अपने बेटे को साथ लाया था। उसने बेटे को बड़े ढंग से बड़ा किया था, बड़े संस्कारों में ढाला था,बड़ा परिष्कृत किया था। सदा से उसकी यही आकांक्षा थी कि उसका एक बेटा कम से कम राजा के दरबार में हिस्सा हो जाए। उसने उसके लिए ही उसे बड़ी मेहनत से तैयार किया था। उसे पक्का भरोसा था, क्योंकि उसने सभी परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कर ली थीं और जहां-जहां, जहां-जहां उसे पढ़ने-लिखने भेजा था, गुरुओं ने बड़े प्रमाण-पत्र दिए थे और उसकी बड़ी प्रशंसा की थी। वह बड़ा बुद्धिमान युवक था। सुंदर था,दरबार के योग्य था। आशा थी बाप को कि कभी न कभी वह बड़ा वजीर भी हो जाएगा।

राजा से आकर उसने कहा कि मेरे पांच बेटों में यह सबसे ज्यादा सुंदर, सबसे ज्यादा स्वस्थ, सबसे ज्यादा बुद्धिमान है। यह आपके दरबार में शोभा पा सकता है, आप इसे एक मौका दें। और जो भी जाना जा सकता है, इसने जान लिया। राजा ने सिर भी ऊपर न उठाया। उसने कहा, एक साल बाद लाओ।

सोचा बाप ने, शायद अभी कुछ कमी है, क्योंकि सम्राट ने चेहरा भी उठाकर न देखा। उसे एक साल के लिए और अध्ययन के लिए भेज दिया। सालभर के बाद जब वह और अध्ययन करके लौट आया--अब अध्ययन को भी कुछ न बचा, वह आखिरी डिग्री ले आया--फिर लेकर पहुंचा। राजा ने उसकी तरफ देखा; लेकिन कहा, ठीक है, लेकिन इसकी क्या विशेषता है? किसलिए तुम चाहते हो कि यह दरबार में रहे? तो उसके बाप ने कहा, इसे मैंने सूफियों के सत्संग में बड़ा किया है। सूफी-मत के संबंध में जितना बड़ा अब यह जानकार है, दूसरा खोजना मुश्किल है। यह आपका सूफी सलाहकार होगा। रहस्य धर्म का कोई न कोई जानने वाला दरबार में होना चाहिए, नहीं तो दरबार की शोभा नहीं है। सब हैं आपके दरबार में--बड़े कवि हैं, बड़े पंडित हैं, बड़े भाषाविद हैं, कोई सूफी नहीं। राजा ने कहा, ठीक है। एक साल बाद लाओ।

एक साल बाद फिर लेकर उपस्थित हुआ। अब तो बाप भी थोड़ा डरने लगा कि यह तो हर बार एक साल...!

राजा ने कहा कि ऐसा करो, तुम्हारी निष्ठा है, तुम सतत पीछे लगे हो, इसलिए मुझे भी लगता है कुछ करना जरूरी है। तुम हार नहीं गए हो, हताश नहीं हो गए हो! अब ऐसा करो--इस युवक को उसने कहा--कि तुम जाओ और किसी सूफी को अपना गुरु मान लो, और किसी सूफी को खोज लो जो तुम्हें अपना शिष्य मानने को तैयार हो। तुम्हारा गुरु मान लेना काफी नहीं है। कोई गुरु तुम्हें शिष्य भी मानने को तैयार हो। फिर सालभर बाद आ जाना।

वह युवक गया। एक गुरु के चरणों में बैठा। सालभरबाद बाप उसको लेने आया। वह गुरु के चरणों में बैठा था,उसने बाप की तरफ देखा ही नहीं। बाप ने उसे हिलाया कि नासमझ, क्या कर रहा है? उठ, साल बीत गया, फिर दरबार चलना है। उसने बाप को कोई जवाब भी न दिया। वह अपने गुरु के पैर दबा रहा था, वह पैर ही दबाता रहा। बाप ने कहा कि व्यर्थ गया; काम से गया, निकम्मा सिद्ध हो गया। इसीलिए हमने तुझे पहले किसी सूफी फकीर के पास नहीं भेजा था। हम सूफी पंडितों के पास भेजते रहे; यह राजा ने कहां की झंझट बता दी कि कोई गुरु खोज, और फिर कोई गुरु जो तुझे शिष्य की तरह स्वीकार करे! तू सुनता क्यों नहीं? क्या तू पागल हो गया है, कि बहरा हो गया है? मगर वह युवक चुप ही रहा। साल बीत गया, बाप दुखी होकर घर लौट गया। राजा नेपुछवाया कि लड़का आया क्यों नहीं? बाप ने कहा कि व्यर्थ हो गया, निकम्मा साबित हो गया। क्षमा करें, मेरी भूल थी, मैंने पत्थर को हीरा समझा।

लेकिन राजा ने अपने वजीरों से कहा कि तैयारी की जाए, उस आश्रम में जाना पड़ेगा। राजा खुद आया। द्वार पर खड़ा हुआ। गुरु लड़के को हाथ से पकड़कर दरवाजे पर लाया और राजा से उसने कहा कि अब तुम्हारे यह योग्य है; क्योंकि पहले तो यह तुम्हारे पास जाता था, अब तुम इसके पास आए। बाप की दृष्टि में यह निकम्मा हो गया, किसी काम न रहा! अब यह परमात्मा की दुनिया में काम का हो गया है। अगर यह राजी हो, और तुम ले जा सको, तो तुम्हारा दरबार शोभायमान होगा। यह तुम्हारे दरबार की ज्योति हो जाएगा। कहते हैं, राजा ने बहुत हाथ-पैर जोड़े, पर उस युवक ने कहा कि अब इन चरणों को छोड़कर कहीं जाना नहीं है। दरबार मिल गया ।

No comments:

Post a Comment