शर्मिंदा
फ़ोन की घंटी तो सुनी मगर आलस की वजह से रजाई में ही लेटी रही। उसके पति राहुल को आखिर उठना ही पड़ा। दूसरे कमरे में पड़े फ़ोन की घंटी बजती ही जा रही थी।इतनी सुबह कौन हो सकता है जो सोने भी नहीं देता, इसी चिड़चिड़ाहट में उसने फ़ोन उठाया। “हेल्लो, कौन” तभी दूसरी तरफ से आवाज सुन सारी नींद खुल गयी।
“नमस्ते पापा।” “बेटा, बहुत दिनों से तुम्हे मिले नहीं सो हम दोनों ११ बजे की गाड़ी से आ रहे है। दोपहर का खाना साथ में खा कर हम ४ बजे की गाड़ी वापिस लौट जायेंगे। ठीक है।” “हाँ पापा, मैं स्टेशन पर आपको लेने आ जाऊंगा।”
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फ़ोन रख कर वापिस कमरे में आ कर उसने रचना को बताया कि मम्मी पापा ११ बजे की गाड़ी से आरहे है और दोपहर का खाना हमारे साथ ही खायेंगे।
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रजाई में घुसी रचना का पारा एक दम सातवें आसमान पर चढ़ गया। “कोई इतवार को भी सोने नहीं देता, अब सबके के लिए खाना बनाओ। पूरी नौकरानी बना दिया है।” गुस्से से उठी और बाथरूम में घुस गयी। राहुल हक्का बक्का हो उसे देखता ही रह गया।
जब वो बाहर आयी तो राहुल ने पूछा “क्या बनाओगी।” गुस्से से भरी रचना ने तुनक के जवाब दिया “अपने को तल के खिला दूँगी।” राहुल चुप रहा और मुस्कराता हुआ तैयार होने में लग गया, स्टेशन जो जाना था।
थोड़ी देर बाद ग़ुस्सैल रचना को बोल कर वो मम्मी पापा को लेने स्टेशन जा रहा है वो घर से निकल गया।
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रचना गुस्से में बड़बड़ाते हुए खाना बना रही थी।
दाल सब्जी में नमक, मसाले ठीक है या नहीं की परवाह किए बिना बस करछी चलाये जा रही थी। कच्चा पक्का खाना बना बेमन से परांठे तलने लगी तो कोई कच्चा तो कोई जला हुआ। आखिर उसने सब कुछ ख़तम किया, नहाने चली गयी।
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नहा के निकली और तैयार हो सोफे पर बैठ मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगी।उसके मन में तो बस यह चल रहा था कि सारा संडे खराब कर दिया। बस अब तो आएँ , खाएँ और वापिस जाएँ ।
थोड़ी देर में घर की घंटी बजी तो बड़े बेमन से उठी और दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही उसकी आँखें हैरानी से फटी की फटी रह गयी और मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका।
सामने राहुल के नहीं उसके अपने मम्मी पापा खड़े थे जिन्हें राहुल स्टेशन से लाया था।
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मम्मी ने आगे बढ़ कर उसे झिंझोड़ा “अरे, क्या हुआ। इतनी हैरान परेशान क्यों लग रही है। क्या राहुल ने बताया नहीं कि हम आ रहे हैं।” जैसे मानो रचना के नींद टूटी हो “नहीं, मम्मी इन्होंने तो बताया था पर…. रर… रर। चलो आप अंदर तो आओ।” राहुल तो अपनी मुसकराहट रोक नहीं पा रहा था।
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कुछ देर इधर उधर की बातें करने में बीत गया। थोड़ी देर बाद पापा ने कहाँ “रचना, गप्पे ही मारती रहोगी या कुछ खिलाओगी भी।” यह सुन रचना को मानो साँप सूँघ गया हो। क्या करती, बेचारी को अपने हाथों ही से बनाए अध पक्के और जले हुए खाने को परोसना पड़ा। मम्मी पापा खाना तो खा रहे थे मगर उनकी आँखों में एक प्रश्न था जिसका वो जवाब ढूँढ रहे थे। आखिर इतना स्वादिष्ट खाना बनाने वाली उनकी बेटी आज उन्हें कैसा खाना खिला रही है।
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रचना बस मुँह नीचे किए बैठी खाना खा रही थी। मम्मी पापा से आँख मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। खाना ख़तम कर सब ड्राइंग रूम में आ बैठे। राहुल कुछ काम है अभी आता हुँ कह कर थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गया। राहुल के जाते ही मम्मी, जो बहुत देर से चुप बैठी थी बोल पड़ी “क्या राहुल ने बताया नहीं था की हम आ रहे हैं।”
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तो अचानक रचना के मुँह से निकल गया “उसने सिर्फ यह कहाँ था कि मम्मी पापा लंच पर आ रहे हैं, मैं समझी उसके मम्मी पापा आ रहे हैं।”
फिर क्या था रचना की मम्मी को समझते देर नहीं लगी कि ये मामला है। बहुत दुखी मन से उन्होंने रचना को समझाया “बेटी, हम हों या उसके मम्मी पापा तुम्हे तो बराबर का सम्मान करना चाहिए। मम्मी पापा क्या, कोई भी घर आए तो खुशी खुशी अपनी हैसियत के मुताबिक उसकी सेवा करो। बेटी, जितना किसी को सम्मान दोगी उतना तुम्हे ही प्यार और इज़्ज़त मिलेगी। जैसे राहुल हमारी इज़्ज़त करता है उसी तरह तुम्हे भी उसके माता पिता और सम्बन्धियों की इज़्ज़त करनी चाहिए। रिश्ता कोई भी हो, हमारा या उसका, कभी फर्क नहीं करना।”
रचना की आँखों में ऑंसू आ गए और अपने को शर्मिंदा महसूस कर उसने मम्मी को वचन दिया कि आज के बाद फिर ऐसा कभी नहीं होगा..!
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Tuesday, 13 June 2017
शर्मिंदा
Labels:
लघु कथा
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