Saturday, 29 April 2017

आद्य शंकराचार्य

शिवगुरु से ज्योतिषियों ने कहा कि  तुम्हारा बेटा शंकर अल्पायु होगा।
शंकर के उपनयन से पहले ही शिवगुरु की मृत्यु हो गयी।
मां ने ही परिवार संभाला ,शंकर को गुरुकुल में भेज दिया।
कुछ ही वर्षों में शंकर के अद्भुत-पांडित्य की चर्चा होने लगी ।
केरल के राजा राजशेखर ने शंकर को बुलवाया।
शंकर के मन में विरक्ति का भाव जग रहा था किन्तु मां की ममता थी ।  मां मैं संन्यासी हो जाऊं?
मां सुन कर के ही अधीर हो गयी तो शंकर चुप हो गये।एक दिन मां-बेटे अलवाई नदी पर नहाने गये ।
मां नहा कर कपडे बदल रही थी कि अचानक मगर ने शंकर का पैर पकड लिया ।
मां ने कहा कि हाय विधाता ! इससे तो अच्छा यही था कि शंकर संन्यासी बन कर जीवित रहता !!
शंकर बच गया और मां से संन्यासी बनने की आज्ञा मांगी ।
आज्ञा मिल गयी पर मां ने पूछा मुझे दाह कौन देगा?
शंकर ने कहा मैं दूंगा।
संन्यासियों ने और नंबूदिरी-ब्राह्मणों ने इसे शास्त्र का उल्लंघन माना और शंकर की उपेक्षा की।
शंकर चल पडे ।
गौडपाद के शिष्य गोविन्दाचार्य से दीक्षा ली ।
गुरु ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखने की आज्ञा दी ।
अद्वैतवाद का प्रतिपादन हुआ।कीर्ति का विस्तार हुआ।
मां की मृत्यु का आभास हुआ तो कालटीग्राम जा पंहुचे ।
नंबूदिरी-ब्राह्मणों ने इसे शास्त्र का उल्लंघन माना कि संन्यासी दाह करेगा।
कोई मां के शव को उठाने नहीं आया तो शंकर ने घर के आगे चबूतरे पर ही घर के ही काठ-किबाड एकत्र करके चिता बनाई और मां की दाह -क्रिया की ।
सुना है कि तब से नंबूदिरी-ब्राह्मणों में घर के आगे चबूतरे पर ही दाहक्रिया करने का रिवाज चल गया ।

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