Wednesday 26 April 2017

संतुलन

"कभी साइकिल चलायी है ? साइकिल चलाने  के लिए सबसे अधिक आवश्यक क्या है ??

सीट, चक्के, चैन, पेडल, ब्रेक, घंटी इन सबों को मिलकर ही तो साइकिल बनती है जो फैक्ट्री से निकलकर दुकानो में खड़ी रहती है ; पर चलने के लिए  साइकिल को इनसे अधिक बैलेंस (संतुलन) की आवश्यकता होती है।

आश्चर्य देखिये, संतुलन साइकिल में अलग से फिट नहीं होता , उसे प्राप्त करना पड़ता है। संभवतः यही कारन है की आज तक कोई भी कक्षा में बैठ कर साइकिल चलना नहीं सीख पाया , क्योंकि संतुलन को प्राप्त करने के लिए साइकिल को ले कर निकलना पड़ेगा, स्टैंड हटानी होगी और सीखने के क्रम में गिरना और चोट खाना भी पड़ेगा ; आखिर आवश्यकताओं की प्राथमिकता में विकल्प जो नहीं होता, यही तो महत्वपूर्ण का महत्व होता है ।

अगर एक साधारण से साइकिल को चलाने के लिए बैलेंस/ संतुलन इतना महत्वपूर्ण है तो क्या ये 'सृष्टि  के साइकिल' को बिना बैलेंस के चलाया जा सकता है ??

आध्यात्म के ईश्वर और विज्ञानं के एक्विलिब्रियम के बीच केवल समझ का फर्क है; दोनों ही संतुलन का स्त्रोत हैं हैं। ये सृष्टि  एक साइकिल है और ईश्वर इसका संतुलन।

चूँकि ईश्वर सर्वश्रेष्ठ  और सर्वोत्तम है, उसके श्रीजनन के समस्त कलाकृतियों में ये गुण सामान रूप से पाये जाते हैं ; गलत तो सिर्फ प्रवृति, प्रक्रिया, प्रयोजन अथवा प्रणाली ही होती है जो किसी भी निर्णय का आधार होता है। इसके निवारण के लिए समझ का स्पष्ट और नीयत का स्वक्ष होना आवश्यक है।

मनुष्य श्रेष्ठतम योनि है क्योंकि इसे निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त है। यूँ तो गाय घांस खाती है पर उसे उगा नहीं सकती और शेर मांस खाता है पर पोल्ट्री फार्म नहीं खोल सकता।

प्रकृति ने सृष्टि  में , निर्णय लेने का अधिकार मनुष्य को दिया है। निर्णय लेने का अधिकार महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि मनुष्य का निर्णय  सृष्टि  के सभी प्राणियों के लिए सामान्य रूप से बाध्य होता है। फिर अगर पेड़ काटना हो या, नदियों का प्रदुषण, मनुष्यों के कृत से 'सृष्टि  का साइकिल' सर्वाधिक प्रभावित होता है। ऐसे में सृष्टि में संतुलन और असंतुलन का उत्तरदाईत्व  मनुष्य का होता है।

पर अगर समझ ही कुंठित हो जाए तो निर्णय कभी सही  हो ही नहीं सकता, परिणामस्वरूप, अधिकार शोषण में बदल जाता है।

अब अगर साइकिल के असंतुलित होने से गिरने का डर और चोट का खतरा रहता है, तो सृष्टि  का साइकिल कोई अपवाद नहीं ; बेहतर होगा की मनुष्य अपने समझ का विकास करे न के अपने समझ के अनुरूप विकास को परिभासित करे , तभी सृष्टि  का कल्याण होगा और जीवन की क्रमागत उन्नति भी  !!"

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