Wednesday 19 April 2017

जीवन में ॐ का महत्त्व

ॐ शब्द भारतीय संस्कृति में अपना विशेष महत्त्व रखता है। ॐ के उच्चारण के साथ ध्यानस्थ होने से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शान्ति मिलती है।

ॐ तीन वर्णाक्षरों से मिलकर बना है--अ-उ-म्। अ जाग्रत अवस्था का, उ स्वप्नावस्था का और म् सुषुप्ति अवस्था का प्रतीक माना जाता है। सृष्टि के सञ्चालन में तीन तत्व मुख्य रूप से कार्य करते हैं--ताप, ध्वनि और प्रकाश। इन तीनों तत्वों के मूर्तरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश है और  इन्हीं तीनों से सृजनात्मक, रक्षात्मक और ध्वंसात्मक शक्तियों का आविर्भाव होता है जिनका समन्वय रूप है--'ॐ'।

ॐ में तीनों तत्व और तीनों शक्तियां विद्यमान हैं। ॐ आदि महामंत्र है। उसमें असीम महिमामयी शक्तियां हैं। अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होने वालों के लिए प्रमुख सम्बल है।

ॐ हमारे सामने दो रूपों में उपस्थित है--समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का व्यापक अर्थ में प्रयोग है जिसका अर्थ है--समस्त या सम्पूर्ण। व्यष्टि का आशय सीमित क्षेत्र में है जिसका मतलब है--व्यक्त।

ॐ अपने पूर्ण रूप में ब्रह्म अथवा 'पराशक्ति' की छाया है। अर्द्ध मात्रा ॐ अनुस्वार 'अक्षर ब्रह्म' का प्रत्यक्ष रूप होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त 'परमा शक्ति' का  वाचक है। उसीसे अंतर्चेतना में प्राण, बुद्धि, विवेक, ज्ञान, प्रज्ञा आदि का जन्म होता है।

हमारे शरीर में वैसे अनेक शक्तियों का वास है, लेकिन उनमें प्रमुख शक्ति है--आत्मशक्ति। ॐ का उच्चारण, चिन्तन, मनन और ध्यान करने से आत्मशक्ति तो उद्बुद्ध होती ही है, उसके साथ अन्य शक्तियां भी अपने आप जाग्रत हो जाती हैं।

मन्त्रों में ॐ का प्रारम्भ में प्रयोग क्यों ?
प्रत्येक वर्णाक्षर की अपनी-अपनी शक्ति है लेकिन वह सुप्त अवस्था में रहती है। जो मंत्रद्रष्टा हैं, वे वर्णाक्षर शक्ति को पहचानते हैं और उसी पहचान के आधार पर वे उनका संयोजन कर विभिन्न प्रकार के मन्त्रों की रचना करते हैं लेकिन उन मन्त्रों में संयोजित, नियोजित वर्णाक्षरों की शक्तियां फिर भी सुप्त रहती हैं। उनको जाग्रत करने के लिए मन्त्रों के आगे 'ॐ' का प्रयोग किया जाता है।

ॐ में निहित तीनों तत्व और तीनों शक्तियां स्वयं जाग्रत होने के कारण वर्णाक्षरों की सुप्त शक्तियां तत्काल जाग्रत हो उठती हैं और जप करने वाला साधक जब मन्त्र-जप करता है, उस अवस्था में वे जाग्रत शक्तियां क्रियाशील हो जाती हैं। फलस्वरूप उनमें गति आ जाती है। जैसे-जैसे जप की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे क्रियाशीलता और गतिशीलता भी बढ़ती जाती है।

वास्तव में 'ॐ' शब्द न होकर एक भाव है जो भव्यतम भावात्मक आस्था का केंद्र बिन्दु है। ॐ प्रणव का वाचक है। प्रणव को प्रकृति का स्वरुप भी कह सकते हैं। जैसे प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, वैसे ही प्रणव(ॐ) भी त्रिगुणात्मक है--जिसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के गुण विद्यमान हैं। इन तीनो शक्तियों के वाहक देव क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा हैं। ॐ का भाव सृष्टि का सार है, परमात्मा का भावरूप है और भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठतम प्रतीक है।

 ॐ आध्यात्मिक उत्थान और मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों के उत्थान के साथ-साथ शारीरिक शीतलता भी प्रदान करता है। ॐ के निरन्तर उच्चारण से शरीर की धमनियाँ विशेष रूप से सक्रिय हो जाती हैं जिससे शरीर में रक्त का संचार सुचारु रूप से होने लग जाता है। यौगिक प्रक्रिया में ॐ के उच्चारण के साथ दीर्घ श्वास-प्रश्वास लेने पर प्रणव शक्ति को विशेष बल मिलता है(जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि प्रणव शक्ति तीनों शक्तियों और तीनों तत्वों का समवेत स्वरुप है। वे शक्तियां और तत्व हैं--महासरस्वस्ती-ब्रह्मा, महालक्ष्मी-विष्णु और महाकाली-महेश)।

इसके साथ ही साथ प्राण शक्ति का विशेष विकास होता है। प्राणशक्ति के विकास से हमारा प्राणशारीर(विद्युत् शारीर ethereal body} शक्तिशाली बनता है। इसके फलस्वरूप चेहरे पर कान्ति और चमक आ जाती है और शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न हो जाती है।

 ॐ के उच्चारण से होंठ खुलते हैं और म् के उच्चारण से बन्द होते हैं। फलस्वरूप दूषित(कार्बन डाई ऑक्साइड युक्त) वायु बाहर निकल जाती है और पेट ही नहीं शरीर के सभी अवयव स्वच्छ और स्वस्थ हो जाते हैं।

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